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ॐ गीता दर्शन भाग-60
कंट्राडिक्टरीज साथ नहीं हो सकते। या तो ऐसा होगा, या वैसा | इस अर्थ में, कि वृक्ष हो सकता है; अगर हम बो दें, तो वृक्ष हो होगा; दोनों एक साथ नहीं हो सकते। इसलिए पश्चिम कहता है, | जाएगा। और जो कल हो सकता है, वह आज भी कहीं न कहीं या तो कहो गॉड इज़, ईश्वर है; या कहो गॉड इज़ नाट, ईश्वर नहीं | | छिपा होना चाहिए, नहीं तो कल होगा कैसे। फिर हर कोई बीज है। लेकिन गीता कहती है, गॉड इज़ एंड इज़ नाट, बोथ; ईश्वर है। बो देने से हर कोई वृक्ष नहीं हो जाएगा। जो वृक्ष छिपा है, वही भी, नहीं भी है।
होगा। नहीं तो हम आम बो दें और नीम पैदा हो जाए। नीम बो दें ___ वह सत भी है, असत भी है; या तो यह उपाय है कहने का। और और आम पैदा हो जाए। लेकिन नीम से नीम पैदा होगी। इसका या दूसरा उपाय यह है कि न तो वह सत है, और न वह असत है। | एक मतलब साफ है कि नीम में नीम का ही वृक्ष छिपा था। जो
और चूंकि दोनों को एक साथ उपयोग करना पड़ता है, इसलिए | बीज है आज, वह कल वृक्ष हो सकता है, इसलिए वृक्ष उसमें अकथनीय है; कहा नहीं जा सकता। कहने में आधे को ही कहना | है-अव्यक्त, अप्रकट, अनमैनिफेस्ट। पड़ता है। क्योंकि भाषा द्वंद्व पर निर्भर है, भाषा द्वैत पर निर्भर है, | फिर कल वृक्ष हो गया। अगर मैं आपसे पूछू कि बीज कहां है? भाषा विरोध पर निर्भर है। भाषा में अगर दोनों विरोध एक साथ रख | कल बीज था, वृक्ष छिपा था। आज वृक्ष है, बीज छिप गया। बीज . दिए जाएं, तो व्यर्थ हो जाता है, अर्थ खो जाता है। इसलिए | अब भी है, लेकिन अब छिप गया। अप्रकट है। लेकिन हम कहेंगे, अकथनीय है। लेकिन क्यों नहीं कहा जा सकता ईश्वर को कि है? | बीज नहीं है।
थोड़ा समझें। हम कह सकते हैं, टेबल है, कुर्सी है, मकान है। नहीं अप्रकट रूप है, और है प्रकट रूप है। ईश्वर दोनों है, कभी इसी तरह हम कह नहीं सकते कि ईश्वर है। क्योंकि मकान कल प्रकट है, कभी अप्रकट है। जगत उसका है रूप है, पदार्थ उसका नहीं हो जाएगा। कुर्सी कल जलकर राख हो जाएगी, मिट जाएगी। | है रूप है, और आत्मा उसका नहीं रूप है। टेबल परसों नहीं होगी। मकान आज है, कल नहीं था। जब हम यह थोड़ा जटिल है। इसलिए बुद्ध ने आत्मा को नथिंगनेस कहा कहते हैं, मकान है, तो इसमें कई बातें सम्मिलित हैं। कल मकान | है, नहीं। यह जो दिखाई पड़ता है, यह परमात्मा का है रूप है। और नहीं था, और कल मकान फिर नहीं हो जाएगा। और जब हम कहते | जो भीतर नहीं दिखाई पड़ता है, वह उसका नहीं रूप है। और जब हैं, ईश्वर है, तो क्या हम ऐसा भी कह सकते हैं कि कल ईश्वर नहीं | तक दोनों को हम न जान लें, तब तक हम मुक्त नहीं हो सकते। था और कल ईश्वर नहीं हो जाएगा?
है को तो हम जानते हैं, नहीं है को भी जानना होगा। इसलिए हर है के दोनों तरफ नहीं होता है। मकान कल नहीं था, कल ध्यान मिटने का उपाय है, नहीं होने का उपाय है। प्रेम मिटने का फिर नहीं होगा, बीच में है। हर है के दोनों तरफ नहीं होता है। | उपाय है, नहीं होने का उपाय है। समर्पण, भक्ति, श्रद्धा, सब मिटने इसलिए ईश्वर है, यह कहना गलत है। क्योंकि उसके दोनों तरफ के उपाय हैं, ताकि नहीं रूप को भी आप जान लें। नहीं नहीं है। वह कल भी था, परसों भी था। कल भी होगा, परसों | जो न सत है, जो न असत है, या जो दोनों है, वह अकथनीय भी होगा। वह सदा है।
| है। उसे कहा नहीं जा सकता। इसलिए सभी शास्त्र उस संबंध में तो जो सदा है, उसको है कहना उचित नहीं। क्योंकि हम है उन बहुत कुछ कहकर भी यह कहते हैं कि कुछ कहा नहीं जा सकता। चीजों के लिए कहते हैं, जो सदा नहीं हैं। और जिसके लिए है हमारा सब कहना बच्चों की चेष्टा है। हमारा सब कहना प्रयास कहना ही उचित न हो, उसके लिए नहीं है कहने का तो कोई अर्थ | | है आदमी का, कमजोर आदमी का, सीमित आदमी का। जैसे कोई नहीं रह जाता।
आकाश को मुट्ठी में बांधने की कोशिश कर रहा हो। ईश्वर अस्तित्व ही है। नहीं और है, दोनों उसमें समाविष्ट हैं। निश्चित ही, मुट्ठी में भी आकाश ही होता है। जब आप मुट्ठी उसका ही एक रूप है है; और उसका ही एक रूप नहीं है। कभी | | बांधते हैं, तो जो आपके भीतर है मुट्ठी के, वह भी आकाश ही है। वह प्रकट होता है, तब है मालूम होता है। और कभी अप्रकट हो | | लेकिन फिर भी क्या आप उसको आकाश कहेंगे? क्योंकि आकाश जाता है, तब नहीं है मालूम होता है।
| तो यह विराट है। एक बीज है। अगर मैं आपसे पूछू कि बीज में वृक्ष है या नहीं? | आपकी मुट्ठी में भी आकाश ही होता है, लेकिन पूरा आकाश तो आपको कहना पड़ेगा कि दोनों बातें हैं। क्योंकि बीज में वृक्ष है, | | नहीं होता। क्योंकि आपकी मुट्ठी भी आकाश में ही है, पूरे आकाश
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