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O समत्व और एकीभाव
वे मौका नहीं देते।
| यह परमात्म-भाव ऐसा हो जाना चाहिए कि परमात्मा ही दिखाई आदमी अपने साथ इतनी ज्यादा पीड़ा अनुभव करता है, और पड़े, बाकी लोग उसके रूप दिखाई पड़ें। यह भाव-दशा बन जाती सोचता है, दूसरों को सुख देगा। पति पत्नी को सुख देना चाहता है। लेकिन अपने से ही शुरू करना पड़े।। है, पत्नी पति को सुख देना चाहती है। पत्नी सोचती है कि पति के | __ और जैसे कोई पत्थर फेंके पानी में, तो पहले छोटा-सा वर्तुल लिए स्वर्ग बना दे, लेकिन अकेली घडीभर नहीं रह सकती, नरक | | उठता है पत्थर के चारों तरफ। फिर वर्तुल फैलता जाता है, और दूर मालूम होने लगता है। तो जब अकेले रहकर पत्नी को खुद नरक | | अनंत किनारों तक चला जाता है। ऐसा पहली दफा परमात्मा का मालूम होने लगता है, तो यह पति के लिए नरक ही बना सकती है, | पत्थर अपने भीतर ही फेंकना जरूरी है। फिर वर्तुल उठता है, लहरें स्वर्ग बनाएगी कैसे!
| फैलने लगती हैं, और चारों तरफ पहुंच जाती हैं। कोई किसी दूसरे के लिए स्वर्ग नहीं बना पाता, क्योंकि हम ___ जब तक आप अपने में देखते हैं पाप, नरक, और आपको कोई अकेले अपने साथ रहने को राजी नहीं हैं।
| परमात्मा नहीं दिखाई पड़ता, तब तक आपको किसी में भी दिखाई इस जमीन पर उन लोगों के निकट कभी-कभी स्वर्ग की | | नहीं पड़ सकता। आप कितना ही मंदिर की मूर्ति पर जाकर सिर थोड़ी-सी हवा बहती है, जो अपने साथ रहने की कला जानते हैं। | पटकें और आपको चाहे कृष्ण और राम भी मिल जाएं, तो भी इसे थोड़ा समझ लेना। जो आदमी एकांत में रहने की कला जानता | | आपको परमात्मा दिखाई नहीं पड़ सकता। है, उसके पास आपको कभी थोड़े-से रस की बूंदे मिल सकती हैं, | जिस धोबी ने राम के खिलाफ वक्तव्य दिया, और जिसकी कोई अमृत की थोड़ी झलक मिल सकती है। लेकिन जो अपने साथ | | वजह से राम को सीता को निकाल देना पड़ा, वह राम के गांव का रहना जानता ही नहीं, उसका तो जीवन से कोई संस्पर्श नहीं हआ है। निवासी था; उसको राम में राम दिखाई नहीं
पड़ा। उसको सीता में कृष्ण कहते हैं, शुद्ध देश में, एकांत में, अपने भीतर की शुद्धता | सीता दिखाई नहीं पड़ी। उसको तो सीता में भी दिखाई पड़ी में रहने का स्वभाव और विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में | | व्यभिचारिणी स्त्री। वह खुद व्यभिचारी रहा होगा। जो हमारे भीतर अरति...।
| होता है, वह हमें दिखाई पड़ता है। अगर कभी जाना भी हो किसी के पास, तो ऐसे व्यक्ति के पास तो राम भी पास खड़े हों, तो आपको गड़बड़ ही दिखाई पड़ेंगे। जाना चाहिए, जो आपको संसार की तरफ न ले जाता हो। जो | आपको तो कुछ अड़चन ही मालूम होगी। आपको लगेगा, कुछ न आपको संन्यास की तरफ ले जाता हो। जो आपको उठाता हो | कुछ बात है। वस्तुओं के पार। जो आपको जीवन के परम मंदिर की तरफ इशारा एक मित्र ने थीसिस लिखी है, राम के ऊपर एक शोध-ग्रंथ करता हो। अगर जाना ही हो किसी के पास, तो ऐसे व्यक्ति के पास | लिखा है। और शोध-ग्रंथ में उन्होंने यह सिद्ध करने की कोशिश जाना चाहिए। अन्यथा भीड़ से, समूह से बचना चाहिए। | की है कि शबरी बूढ़ी स्त्री नहीं थी, जवान स्त्री थी। और राम का
तथा अध्यात्म-ज्ञान में नित्य स्थिति और तत्वज्ञान के अर्थ रूप | संबंध प्रेम का था शबरी से, भक्ति का नहीं था। परमात्मा को सर्वत्र देखना, यह सब तो ज्ञान है; और जो इससे | इन मित्र को मैं जानता हूं। वे कभी-कभी मुझसे मिलने आते थे। विपरीत है, वह अज्ञान है; ऐसा कहा है। परमात्मा को सर्वत्र | मैंने उनसे पूछा कि यह ठीक हो या गलत हो, मुझे कुछ पता नहीं। देखना, यह तो ज्ञान है। और इससे विपरीत जो है, वह अज्ञान है। | और इसमें मुझे कोई रस भी नहीं कि राम का शबरी से प्रेम था या
बड़ा कठिन है परमात्मा को सर्वत्र देखना। अपने ही भीतर नहीं | नहीं। लेकिन तुम्हें शोध करने का यह खयाल कैसे पैदा हुआ? सच देख सकते, तो बाहर कैसे देख सकेंगे। पहले तो अपने ही भीतर | हो भी सकता है। मुझे कुछ पता नहीं कि राम का क्या संबंध था देखना जरूरी है कि परमात्मा मौजूद है। चाहे कितना ही विकृत | और न मेरी कोई उत्सुकता है कि किसी के संबंधों की जानकारी हो, कितना ही उलझा हो, बंधन में हो, कारागृह में हो, है तो | | करूं। न मेरा कोई अधिकार है; न मैं कोई इंसपेक्टर हूं, जो तय परमात्मा ही। चाहे कितनी ही बेचैनी में, परेशानी में हो, है तो | | किया गया है कि पता लगाएं कि किसका किससे प्रेम है। यह शबरी परमात्मा ही। अपने भीतर भी परमात्मा देखना शुरू करना चाहिए, और राम के बीच की बात है। लेकिन तुम्हें यह खयाल कैसे आया? और अपने आस-पास भी देखना शुरू करना चाहिए। धीरे-धीरे तुम्हें खयाल तो अपने ही किसी अनुभव से आया होगा। और
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