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क्षेत्रज्ञ अर्थात निर्विषय, निर्विकार चैतन्य
क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का, आत्मा और शरीर का, संसार का और मोक्ष का, पदार्थ का और परमात्मा का भेद भी हमारी ही व्याख्या है। और अंतिम क्षण में जब सभी व्याख्याएं गिर जाती हैं, तो कोई भेद नहीं रह जाता। लेकिन सारी व्याख्याएं गिर जाएं, तब अभेद का अनुभव होता है।
यह जो अभेद की प्रतीति है और भेद का हमारा अनुभव है, इसे इस भांति खोज करेंगे तो आसानी होगी, जहां-जहां आपको भेद दिखाई पड़ता है, वस्तुतः वहां भेद है ?
अंधेरे में और प्रकाश में हमें भेद दिखाई पड़ता है। लेकिन वैज्ञानिक कहते हैं कि अंधेरा प्रकाश का ही एक रूप है। अंधेरे को अगर विज्ञान की भाषा में कहें, तो उसका अर्थ होगा, थोड़ा कम प्रकाश। इससे उलटा भी कह सकते हैं। अगर अंधेरा प्रकाश का एक रूप है, तो हम यह भी कह सकते हैं कि प्रकाश भी अंधेरे का एक रूप है। और प्रकाश की व्याख्या में हम कह सकते हैं, थोड़ा अंधेरा ।
आइंस्टीन ने रिलेटिविटी को जन्म दिया, सापेक्षता को जन्म दिया । और आइंस्टीन ने कहा कि हमारा यह कहना कि यह अंधेरा है और यह प्रकाश है, नासमझी है। क्योंकि प्रकाश और अंधेरा सापेक्ष हैं, रिलेटिव हैं। अंधेरा थोड़ा कम प्रकाश है, प्रकाश थोड़ा कम अंधेरा है। हमसे बेहतर आंखें हों, तो अंधेरे में भी देख लेंगी और वहां भी प्रकाश पता चलेगा। और हमसे कमजोर आंखें हों, तो प्रकाश में भी नहीं देख पातीं, वहां भी अंधेरा दिखाई पड़ता है। आइंस्टीन कहता है, अगर आंख की ताकत बढ़ती जाए, तो अंधेरा प्रकाश होता चला जाएगा। और आंख की ताकत कम होती जाए, तो प्रकाश अंधेरा होता चला जाएगा। फिर दोनों में कोई फासला नहीं है; दोनों में कोई भेद नहीं है।
और इसे ऐसा समझें, अगर आंख हो ही न, तो प्रकाश और अंधेरे में क्या फर्क होगा? एक अंधे आदमी को प्रकाश और अंधेरे में क्या फर्क है? शायद आप सोचते होंगे, अंधे को तो सदा अंधेरे में रहना पड़ता होगा, तो आप गलती में हैं। अंधेरे को देखने के लिए भी आंख चाहिए। अंधे को अंधेरा दिखाई नहीं पड़ सकता । अंधा भी अंधेरा नहीं देख सकता; क्योंकि देखने के लिए तो आंख चाहिए। कुछ भी देखना हो, अंधेरा देखना हो तो भी।
इसलिए आप सोचते हों कि अंधा जो है, अंधेरे में रहता है, तो आप बिलकुल गलती में हैं। अंधे को अंधेरे का कोई पता ही नहीं है। ध्यान रहे, जो अंधेरे को देख सकता है, वह तो फिर प्रकाश को
भी देख लेगा, क्योंकि अंधेरा प्रकाश का ही एक रूप है।
अंधे को न अंधेरे का पता है और न प्रकाश का। आप आंख बंद करते हैं, तो आपको अंधेरा दिखाई पड़ता है, इससे आप यह मत सोचना कि अंधे को अंधेरा दिखाई पड़ता है। बंद आंख भी आंख है, इसलिए अंधेरा दिखाई पड़ता है। अंधे के लिए अंधेरे और प्रकाश में क्या फर्क है ? कोई भी फर्क नहीं है। अंधे के लिए न तो | अंधेरा है और न प्रकाश है।
इसे हम दूसरी तरह से भी सोचें। अगर परमात्मा के पास आंख हो, तो उसका अर्थ होगा, जैसे अंधा बिलकुल नहीं देख सकता है, हम थोड़ा देख सकते हैं, परमात्मा पूरा देख सकता हो ।
अगर परमात्मा के पास एब्सोल्यूट आइज हों, परिपूर्ण आंखें हों, तो उसे भी अंधेरे और प्रकाश में कोई अंतर नहीं दिखाई पड़ेगा। क्योंकि अंधेरे में भी वह उतना ही देखेगा, जितना प्रकाश में देखेगा। उसकी आंख सापेक्ष नहीं है। इसलिए अगर परमात्मा देखता होगा, तो उसको भी अंधेरे और प्रकाश का कोई पता नहीं हो सकता । उसकी हालत अंधे जैसी होगी, दूसरे छोर पर ।
अगर पूरी आंख हो, तो भी फर्क पता नहीं चलेगा। फर्क पता तो तभी चल सकता है, जब थोड़ा हम देखते हों और थोड़ा हम न देखते हों।
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इसे ऐसा समझें कि आप कहते हैं कि गरम है पानी, या आप कहते हैं कि बर्फ बहुत ठंडी है। तो ठंडक और गरमी, लगता है बड़ी विपरीत चीजें हैं। और हमारे अनुभव में हैं। जब गरमी तप रही हो चारों ओर, तब ठंडे पानी का एक गिलास तृप्ति देता है। कितना ही कृष्ण कहें कि सब अद्वैत है, हम यह मानने को राजी न होंगे कि गरम पानी का गिलास भी इतनी ही तृप्ति देगा । और कितना ही आइंस्टीन कहे कि गरमी भी ठंडक का एक रूप है, और ठंडक भी गरमी का एक रूप है, फिर भी हम जानते हैं, ठंडक ठंडक है, गरमी गरमी है। और आइंस्टीन भी जब गरमी पड़ेगी, तो छाया में सरकेगा। और जब ठंड लगेगी, तो कमरे में हीटर लगाएगा । हालांकि वह भी कहता है कि दोनों एक ही चीज के रूप हैं।
परम सत्य तो यही है कि दोनों एक चीज के रूप हैं। लेकिन परम सत्य को जानने के लिए परम प्रज्ञा चाहिए। हमारे पास जो बुद्धि है, वह तो सापेक्ष है। उस सापेक्ष बुद्धि में गरमी गरमी है ठंड ठंड है। और दोनों में बड़ा भेद है; विपरीतता है। लेकिन हमें विपरीतता प्रतीत होती है, वह हमारी सापेक्ष बुद्धि के कारण।
एक छोटा-सा प्रयोग करें। पानी रख लें एक बालटी में। एक
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