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________________ ॐ गीता दर्शन भाग-60 ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधः पृथक् । सुंदर प्रतीत नहीं होता। एक आनंदित व्यक्ति सब ओर आनंद ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमभिर्विनिश्चितैः।। ४ ।। देखता है और उसे कांटों में भी फूल जैसा सौंदर्य दिखाई पड़ सकता महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च । | है। देखने वाले पर निर्भर करता है कि क्या दिखाई पड़ेगा। इन्द्रियाणि दर्शकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः।। ५।। __ जो हम देखते हैं, वह हमारी व्याख्या है। इसे थोड़ा ठीक से इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं संघातश्चेतना धृतिः। समझ लें, क्योंकि धर्म की सारी खोज इस बुनियादी बात को ठीक एतत् क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ।। ६ ।। से समझे बिना नहीं हो सकती। आमतौर से जो हम देखते हैं, हम यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का तत्व ऋषियों द्वारा बहुत प्रकार से सोचते हैं, वैसा तथ्य है जो हम देख रहे हैं। लेकिन समझेंगे, कहा गया है और नाना प्रकार के छंदों से विभागपूर्वक कहा खोजेंगे, विचारेंगे, तो पाएंगे, तथ्य कोई भी नहीं हम देख पाते, सभी गया है तथा अच्छी प्रकार निश्चय किए हुए युक्ति-युक्त हमारी व्याख्या है। जो हम देखते हैं, वह हमारा इंटरप्रिटेशन है। ब्रह्मसूत्रों के पदों द्वारा भी वैसे ही कहा गया है। दो-चार तरफ से सोचें। और हे अर्जुन, वहीं में तेरे लिए कहता हूं कि पांच महाभूत, कोई चेहरा आपको सुंदर मालूम पड़ता है। और आपके मित्र . अहंकार, बुद्धि और मूल प्रकृति अर्थात त्रिगुणमयी माया भी को, हो सकता है, वही चेहरा कुरूप मालूम पड़े। तो सौंदर्य चेहरे तथा दस इंद्रियां, एक मन और पांच इंद्रियों के विषय अर्थात में है या आपके देखने के ढंग में? सौंदर्य आपकी व्याख्या है या शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध। चेहरे का तथ्य? अगर सौंदर्य चेहरे का तथ्य है, तो उसी चेहरे में तथा इच्छा, द्वेष, सुख, दुख और स्थूल देह का पिंड एवं सभी को सौंदर्य दिखाई पड़ना चाहिए। पर किसी को सौंदर्य दिखाई चेतनता और धृति, इस प्रकार यह क्षेत्र विकारों के सहित पड़ता है, किसी को नहीं दिखाई पड़ता है। और किसी को कुरूपता संक्षेप से कहा गया है। | भी दिखाई पड़ सकती है उसी चेहरे में। तो चेहरे को जब आप कुछ भी कहते हैं, उसमें आपकी व्याख्या सम्मिलित हो जाती है। तथ्य खो जाता है और आप आरोपित कर सूत्र के पहले थोड़े-से प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है, लेते हैं कुछ। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ, शरीर या आत्मा, प्रकृति और पुरुष, कोई चीज आपको स्वादिष्ट मालूम पड़ सकती है, और किसी ऐसे दो भेदों की चर्चा की गई; फिर भी कृष्ण ने कहा दूसरे को बेस्वाद मालूम पड़ सकती है। तो स्वाद किसी वस्तु में है कि सभी कुछ वे ही हैं। तो समझाएं कि सभी कुछ | होता है या आपकी व्याख्या में? स्वाद वस्तु में होता है या आप में अगर एक ही है, तो यह भेद, विकार और बिलगाव | होता है? ऐसा हमें पूछना चाहिए। अगर वस्तु में स्वाद होता हो, क्यों है? तो फिर सभी को स्वादिष्ट मालूम पड़नी चाहिए। स्वाद आप में होता है, वस्तु को स्वाद आप देते हैं। वह आपका दान है। और जो आप अनुभव करते हैं, वह आपका ही खयाल है। म ह भेद दिखाई पड़ता है, है नहीं। यह भेद प्रतीत होता । तो ऐसा भी हो सकता है कि जो व्यक्ति आज सुंदर मालूम पड़ता प है, है नहीं। जो भी प्रतीत होता है, जरूरी नहीं है कि है, कल असुंदर मालूम पड़ने लगे। और जो व्यक्ति आज मित्र ___ हो। और जो भी है, जरूरी नहीं है कि प्रतीत हो। बहुत | जैसा मालूम पड़ता है, कल शत्रु जैसा मालूम पड़ने लगे। और जो कुछ दिखाई पड़ता है। उस दिखाई पड़ने में सत्य कम होता है, देखने | | बात आज बड़ी सुखद लगती थी, कल दुखद हो जाए। क्योंकि कल वाले की दृष्टि ज्यादा होती है। | तक आप बदल जाएंगे, आपकी व्याख्या बदल जाएगी। जो आप देखते हैं, उस देखने में आप समाविष्ट हो जाते हैं। और | जो हम अनुभव करते हैं, वह सत्य नहीं है, वह हमारी व्याख्या जिस भांति आप देखते हैं, जिस ढंग से आप देखते हैं, वह आपके | है। और सत्य का अनुभव तो तभी होता है, जब हम सारी व्याख्या दर्शन का हिस्सा बन जाता है। एक दुखी आदमी अपने चारों तरफ इसलिए सत्य के दुख देखता है। अगर आकाश में चांद भी निकला हो, तो वह भी करीब शून्य-चित्त हुए बिना कोई भी नहीं पहुंच सकता है। 204
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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