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________________ गीता में समस्त मार्ग हैं गए हैं। और जिस दिन हम जाना चाहें, दुनिया की कोई ताकत हमें रोक नहीं सकती। लोग मुझसे आकर कहते हैं कि हम बड़ी कोशिश करते हैं, ध्यान में जा नहीं पाते ! उनसे मैं कहता हूं, तुम कोशिश वगैरह नहीं करते हो; और तुम जाना चाहते हो। तुम्हारा रस ध्यान में नहीं है। तुम्हारा रस कहीं और होगा। तुम मुझे बताओ, क्या चाहते हो ध्यान से? एक आदमी ने कहा कि मैं लाटरी का नंबर चाहता हूं। आपके पास इसीलिए आया हूं कि ध्यान, ध्यान, ध्यान सुनते-सुनते मुझे लगा कि ध्यान करके एक दफा सिर्फ नंबर मिल जाए, बात खतम गई। अब यह ध्यान से लाटरी का नंबर चाहता है! पहले उसने मुझे यह नहीं बताया। सोचा कि पता नहीं, मैं उसे ध्यान समझाऊं कि न समझाऊं ! लाटरी में मेरी उत्सुकता हो या न हो तो उसने कहा कि ध्यान की बड़ी इच्छा है। बड़ी अशांति रहती है। अशांति है लाटरी न मिलने की; ध्यान की नहीं है। मगर वह कह भी नहीं रहा है। वह भीतर सोच रहा है कि ध्यान लग जाए; चित्त शांत हो जाए; नंबर दिखाई पड़ जाए; बात खतम हो गई। आप ध्यान से भी कुछ और चाहते हैं । और जब तक कोई ध्यान को ही नहीं चाहता ध्यान के लिए, तब तक ध्यान नहीं हो सकता। आप परमात्मा से भी कुछ और चाहते हैं। वह भी साधन है, साध्य नहीं है। सोचें, अगर आपको परमात्मा मिल जाए; यहां से आप घर पहुंचें और पाएं कि परमात्मा बैठा हुआ है आपके बैठकखाने में। आप क्या मांगिएगा उससे ? जरा सोचें। फौरन मन फेहरिस्त बनाने . लगेगा। नंबर एक, नंबर दो...। और जो चीजें आप मांगेंगे, सभी क्षुद्र होंगी। परमात्मा से मांगने योग्य एक भी न होगी। तो परमात्मा भी मिल जाए, तो आप संसार ही मांगेंगे। आप संसार मांगते हैं, इसलिए परमात्मा नहीं मिलता है। आप जो मांगते हैं, वह मिलता है । और अभी आप संसार से इतने दुखी नहीं हो गए हैं कि परमात्मा को सीधा मांगने लगें। इसलिए रुकावट है। अन्यथा वह आपके भीतर छिपा है। रत्तीभर का भी फासला नहीं है । आप ही वह हैं। इस प्रकार पुरुष को और उसके गुणों को, गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य तत्व से जानता है, वह सब प्रकार से बर्तता हुआ भी फिर नहीं जन्मता है अर्थात पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होता है। यह सूत्र खयाल में ले लेने जैसा है। इस प्रकार पुरुष को और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य | तत्व से जानता है, वह सब प्रकार से बर्तता हुआ भी फिर नहीं | जन्मता है अर्थात पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होता है। जिस व्यक्ति को यह खयाल में आ जाता है कि प्रकृति अलग है और मैं अलग हूं, और जो इस अलगपन को सदा बिना किसी चेष्टा के स्मरण रख पाता है, फिर वह सब तरह से बर्तता हुआ भी...। वह वेश्यागृह में भी ठहर जाए, तो भी उसके भीतर की पवित्रता नष्ट नहीं होती। और आप मंदिर में भी बैठ जाएं, तो सिर्फ | मंदिर को अपवित्र करके घर वापस लौट आते हैं। आप कहां हैं, | इससे संबंध नहीं है। आप क्या हैं, इससे संबंध है। अगर यह खयाल में आ जाए कि मैं अलग हूं, पृथक हूं, तो फिर जीवन नाटक से ज्यादा नहीं है। फिर उस नाटक में कोई बंधन नहीं है, फिर उस नाटक में कोई वासना नहीं है, फिर खेल है और अभिनय है। और जो अभिनय की तरह देख पाता है, कृष्ण कहते हैं, वह फिर नहीं जन्मता। क्योंकि कोई वासना उसकी नहीं है। फिर जैसे एक काम पूरा कर रहा है। जैसे काम पूरा करने में कोई रस नहीं है। जैसे एक जिम्मेवारी है, वह निभाई जा रही है। ऐसे जैसे कि एक आदमी रामलीला में राम बन गया है। जब उसकी सीता खो जाती है, तब वह भी रोता है, और वह भी वृक्षों से पूछता है कि हे वृक्ष, बताओ मेरी सीता कहां है। लेकिन उसके | आंसू अभिनय हैं। उसके भीतर कुछ भी नहीं हो रहा है । न सीता खो गई है, न वृक्षों से वह पूछ रहा है, न उसे कुछ प्रयोजन है। वह अभिनय कर रहा है। वह वृक्षों से पूछेगा; आंसू बहाएगा; जार-जार रोएगा; सीता को खोजेगा। और परदे के पीछे जाकर | बैठकर चाय पीएगा। उसको कोई लेना-देना नहीं है । गपशप करेगा। बात ही खतम हो गई। उससे कुछ लेना-देना नहीं है। अगर असली राम भी परदे के पीछे ऐसे ही हटकर चाय पी लेते हों, तो वे परमात्मा हो गए। अगर आप भी अपनी जिंदगी के सारे उपद्रव को एक नाटक की तरह जी लेते हों, और परदे के पीछे हटने की कला जानते हों...। जिसको मैं कहता हूं, ध्यान, प्रार्थना, पूजा, | वह परदे के पीछे हटने की कला है। दुकान से आप घर लौट आए। परदे के पीछे हट गए, ध्यान में चले गए। ध्यान में जाने का मतलब है कि आपने कहा कि ठीक, वह नाटक बंद । अगर आप सच में ही भीतर के पुरुष को याद रख सकें, तो बंद कर सकेंगे। लेकिन अभी आप नहीं कर सकते। आप कितने ही परदे लटकाएं, दरवाजा बंद करें; वह दुकान आपके साथ चली आएगी 325
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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