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गीता दर्शन भाग-6
वास्तव में तो यह पुरुष इस देह में स्थित हुआ भी पर ही है...। अब इस पुरुष की बहुत-सी स्थितियां हैं। क्योंकि पुरुष तो शरीर से भिन्न है, लेकिन जब भिन्न समझता है, तभी भिन्न है । और चाहे तो समझ ले कि मैं शरीर हूं, तो भ्रांति में पड़ जाएगा।
पुरुष शरीर में रहते हुए भी भिन्न है । यह उसका स्वभाव है। लेकिन इस स्वभाव में एक क्षमता है, तादात्म्य की । यह अगर समझ ले कि मैं शरीर हूं, तो शरीर ही हो जाएगा। आप अगर समझ लें कि आपके हाथ की लकड़ी आप हैं, तो आप लकड़ी ही हो जाएंगे। आप जो भी मान लें, वह घटित हो जाता है। मानना सत्य बन जाता है। पुरुष की यह भीतरी क्षमता है। वह जो मान लेता है, वह सत्य हो जाता है।
वास्तव में तो यह पुरुष इस देह में स्थित हुआ पर ही है। लेकिन साक्षी होने से उपद्रष्टा ... ।
फिर इसकी अलग-अलग स्थितियां हैं। अगर यह साक्षी होकर देखे अपने को भीतर, तो यह उपद्रष्टा या द्रष्टा हो जाता है।
यथार्थ सम्मति देने वाला होने से अनुमंता हो जाता है... । अगर इसकी आप सम्मति मांगें, तो यह आपके लिए अनुमंता हो जाएगा। लेकिन आप इससे कभी सम्मति भी नहीं मांगते। कभी आप शांत और मौन होकर अपने भीतर के पुरुष का सुझाव भी नहीं मांगते। आप वासनाओं का सुझाव मानकर ही चलते हैं। इंद्रियों का सुझाव मानकर चलते हैं। या परिस्थिति में, कोई भी घड़ी उपस्थित हो जाए, तो उसकी प्रतिक्रिया से चलते हैं।
एक आदमी गाली दे दे, तो वह आपको चला देता है। फिर आप उसकी गाली के आधार पर कुछ करने में लग जाते हैं। बिना इसकी फिक्र किए कि यह आदमी कौन है, जो मुझे गुलाम बना रहा है! मैं इसकी गाली को मानकर क्यों चलूं? यह तो मुझे चला रहा है! आप यह मत सोचना कि आप गाली न दें, तो बात खतम हो गई। तो आप भीतर इसकी गाली से कुछ सोचेंगे। शायद यह सोचेंगे कि क्षमा कर दो, नासमझ है। लेकिन यह भी आप चल पड़े। वही चला रहा है आपको। आप सोचें कि यह नासमझ है, पागल है, शराब पीए हुए है। इसलिए क्यों गाली का जवाब देना ! तो भी इसने आपको चला दिया। आप मालिक न रहे; यह बटन दबाने वाला हो गया। इसने गाली दी और आपके भीतर कुछ चलने लगा। आप गुलाम हो गए।
अगर आप रुककर क्षणभर साक्षी हो जाएं और भीतर की सलाह लें - परिस्थिति की सलाह न लें, प्रतिक्रिया न करें, इंद्रियों की
मानकर न पागल बनें - भीतर के साक्षी की सलाह लें, तो वह साक्षी अनुमंता हो जाता है।
सबको धारण करने वाला होने से भर्ता, जीव रूप से भोक्ता, ब्रह्मादिकों का भी स्वामी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानंदघन होने से परमात्मा, ऐसा कहा गया है।
यह जो भीतर पुरुष है, यह बहुत रूपों में प्रकट होता है। अगर ' आप इस पुरुष को शरीर के साथ जोड़ लें, तो लगने लगता है, मैं शरीर हूं। और आप संसार हो जाते हैं। इसको आप तोड़ लें ध्यान से और साक्षी हो जाएं, तो आप समाधि बन जाते हैं। इसकी आप सलाह मांगने लगें, तो आप स्वयं गुरु हो जाते हैं। इसके और भीतर प्रवेश करें, तो यह समस्त सृष्टि का स्रष्टा है, तो आप परमात्मा हो जाते हैं। और इसके अंतिम गहनतम बिंदु पर आप प्रवेश कर जाएं, जिसके आगे कुछ भी नहीं है, तो आप सच्चिदानंदघन परम ब्रह्म हो जाते हैं।
यह पुरुष ही आपका सब कुछ है। आपका दुख, आपका सुख; आपकी अशांति, आपका संसार; आपका स्वर्ग, आपका नरक; आपका ब्रह्म, आपका मोक्ष, आपका निर्वाण, यह पुरुष ही सब | कुछ है।
ध्यान रहे, घटनाएं बाहर हैं और भावनाएं भीतर हैं। भावना का जो अंतिम स्रोत है, वह है परम ब्रह्म सच्चिदानंदघन रूप। वह भी आप हैं।
इसलिए इस मुल्क ने जरा भी कठिनाई अनुभव नहीं की यह कहने में कि प्रत्येक व्यक्ति परमेश्वर है। आपको पता नहीं है, यह बात दूसरी है। लेकिन परमेश्वर आपके भीतर मौजूद है। और आपको पता नहीं है, इसमें भी आपकी ही तरकीब और कुशलता है। आप पता लगाना चाहें, तो अभी पता लगा लें। शायद आप पता लगाना ही नहीं चाहते हैं।
मुझसे सवाल लोग पूछते हैं। आज ही कुछ सवाल पूछे हैं कि अगर हम ध्यान में गहरे चले गए, तो हमारी गृहस्थी और संसार का क्या होगा ? शायद इसीलिए ध्यान में जाने से डर रहे हैं कि | गृहस्थी और संसार का क्या होगा। और फिर भी पूछते हैं। पूछा है उन्होंने भी कि फिर भी ध्यान का कोई रास्ता बताइए!
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क्या करिएगा ध्यान का रास्ता जानकर ? डर लगा हुआ है। क्योंकि हम जो वासनाओं का खेल बनाए हुए हैं, उसके टूट जाने का डर है। तो भूलकर रहना ठीक है।
शायद हम ध्यान में जाना नहीं चाहते, इसीलिए हम ध्यान में नहीं