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ॐ समत्व और एकीभाव ®
लेकिन हम जानते हैं, हमने एकलव्य की कथा पढ़ी है। गलत गुरु | अवस्था में अगर परमात्मा उपलब्ध न हो, तो फिर कभी भी का सवाल ही नहीं है; गुरु था ही नहीं वहां। वहां तो सिर्फ मूर्ति बना | | उपलब्ध नहीं हो सकता है। तो बाहर की कला तो खो गई, लेकिन रखी थी उसने द्रोणाचार्य की। उस मूर्ति के सहारे भी वह उस | वह भीतर की कला को उपलब्ध हो गया। कुशलता को उपलब्ध हो गया जो एकाग्रता है।
इसकी फिक्र छोड़ना; मैं लोगों को कहता हूं, इसकी फिक्र छोड़ो कैसे यह हुआ? क्योंकि मूर्ति तो कुछ सिखा नहीं सकती। | कि गुरु ठीक है या नहीं। तुम कैसे पता लगाओगे? तुम हजार के द्रोणाचार्य खुद भी इतना नहीं सिखा पाए अर्जुन को, जितना उनकी पास घूमकर और कनफ्यूज्ड हो जाओगे, तुम और उलझ जाओगे। पत्थर की मूर्ति ने एकलव्य को सिखा दिया।
| तुम्हें कुछ पता होने वाला नहीं है। तम जितनों के पास जाओगे. तो द्रोणाचार्य का कोई हाथ नहीं है उसमें। अगर कुछ भी है हाथ, | उतने खंडित हो जाओगे। तुम बेहतर है, कहीं रुकना सीखो। रुकने तो एकलव्य के भाव का ही है। वह उस पत्थर की मूर्ति के पास इतना | में खूबी है। बेहतर है, एक के प्रति समर्पित होना सीखो। समर्पण एकीभाव होकर रुक गया, इतनी अव्यभिचारिणी भक्ति थी उसकी | में राज है। वह किसके प्रति, यह इतना महत्वपूर्ण नहीं है। कि पत्थर की मूर्ति के निकट भी उसे जीवंत गुरु उपलब्ध हो गया। ___ और कई दफा तो ऐसा होता है कि गलत के प्रति समर्पण ज्यादा
और गुरु द्रोणाचार्य इस योग्यता के गुरु नहीं थे, जितना एकलव्य | | कीमती परिणाम लाता है। इसे थोड़ा समझ लें। क्योंकि ठीक के प्रति ने उनको माना और फल पाया। क्योंकि गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य समर्पण तो स्वाभाविक है। आपकी कोई खूबी नहीं है उसमें। वह को धोखा दिया। और अपने संपत्तिशाली शिष्य के लिए एकलव्य | | आदमी ठीक है, इसलिए समर्पण आपको करना पड़ रहा है। का अंगूठा कटवा लिया।
आपकी कोई खूबी नहीं है। लेकिन आदमी गलत हो और आप द्रोणाचार्य की उतनी योग्यता नहीं थी, जितनी एकलव्य ने मानी। समर्पण कर सकें, तो खूबी निश्चित ही आपकी है। लेकिन यह बात गौण है। द्रोणाचार्य की योग्यता थी या नहीं, यह | | तो कभी-कभी बहुत-से गुरु अपने आस-पास गलत वातावरण सवाल ही नहीं है। एकलव्य की यह अनन्य भाव-दशा, और | | स्थापित कर लेते हैं। वह भी समर्पण का एक हिस्सा है। क्योंकि एकलव्य की यह महानता, कि इस गुरु ने जब अंगूठा मांगा, तब | | अगर उनके बाबत सभी अच्छा हो, तो समर्पण करने में कोई खूबी उसकी भी समझ में तो आ ही सकता था। आ ही गया होगा। साफ | नहीं, कोई चुनौती नहीं है। वे अपने आस-पास बहुत-सा जाल ही बात है। अंगूठा कट जाने पर वह धनुर्विद नहीं रह जाएगा। खड़ा कर लेते हैं, जो कि गलत खबर देता है। और उस क्षण में
और द्रोणाचार्य ने अंगूठा इसीलिए मांगा कि जब उसके निशाने | | अगर कोई समर्पित हो जाता है, तो समर्पण की उस दशा में देखे, और उसकी तन्मयता और एकाग्रता और उसकी कला देखी, अव्यभिचारिणी भक्ति का जन्म होता है। तो द्रोण णाचार्य के पैर कंप गए। उन्हें लगा कि अर्जन फीका पड कष्ण कहते हैं. एकांत और शद्ध देश में रहने का स्वभाव और
गा। अर्जन की अब कोई हैसियत इस एकलव्य के सामने नहीं विषयासक्त मनष्यों के समदाय में अरति, प्रेम का न होना...। हो सकती। थी भी नहीं। क्योंकि अर्जुन का इतना भाव द्रोणाचार्य आप भीड़ खोजते हैं हमेशा। और अक्सर भीड़ खोजने वाला के प्रति कभी भी नहीं था, जितना भाव एकलव्य का द्रोणाचार्य के | | गलत भीड़ खोजता है। क्योंकि भीड़ खोजना ही गलत मन का प्रति था। और द्रोणाचार्य अर्जुन को तो उपलब्ध थे, एकलव्य को | लक्षण है। उपलब्ध भी नहीं थे।
दूसरे से कुछ भी मिल सकता नहीं। आप जरा सोचें, आप क्या यह कथा बड़ी मीठी और बड़ी अर्थपूर्ण है। एकलव्य ने अंगूठा करते हैं दूसरे से मिलकर? कुछ थोड़ी निंदा, पास-पड़ोस की कुछ भी काटकर दे दिया। मैं मानता हूं कि उसकी धनुर्विद्या तो खो गई | | अफवाहें। किसकी पत्नी भाग गई! किसके बेटे ने धोखा दिया! अंगूठा कटने से, लेकिन उसने भीतर जो योग उपलब्ध कर लिया कौन चोरी कर ले गया! कौन बेईमान है! ये सारी आप बातें करते अंगूठा काटकर...।
| हैं। यह रस अकेले में नहीं आता, इसके लिए दो-चार लोग चाहिए, उस एकलव्य के लिए कृष्ण को गीता कहने की जरूरत नहीं | इसके लिए आप भीड़ खोजते हैं। पड़ी। वह अंगूठा काटने के क्षण में ही उस परम एकत्व को उपलब्ध । एक दिन चौबीस घंटे अपनी चर्चा का खयाल करें। आप कहां हो गया होगा। क्योंकि जरा भी संदेह न उठा! ऐसी असंदिग्ध | बैठते हैं? क्यों बैठते हैं? क्यों बातें करते हैं ये? क्या रस है
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