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________________ ॐ गीता दर्शन भाग-60 बड़ा फासला है। जितने फासले पर होंगे, सुख-दुख का फासला | उसके सारे खंड मन के इकट्ठे हो जाते हैं और वह एकीभाव को कम होने लगता है। जब कोई व्यक्ति दूर से खड़े होकर देख सकता | उपलब्ध हो जाता है। है, सुख और दुख एक ही हो जाते हैं। क्योंकि दूरी से दिखाई पड़ता | जितने आपके प्रेम होंगे, उतने आपके खंड होंगे, उतने आपके है, सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उस दिन समता | हृदय के टुकड़े होंगे। अगर आपके दस-पांच प्रेमी हैं, तो आपके उपलब्ध हो जाती है। हृदय के दस-पांच स्वर होंगे, दस-पांच टुकड़े होंगे। आप एक __ कृष्ण कहते हैं, समता ज्ञानी का लक्षण है। और मुझ परमेश्वर आदमी नहीं हो सकते, दस प्रेम अगर आपके हैं; आप दस आदमी में एकीभाव से स्थितिरूप ध्यान-योग के द्वारा अव्यभिचारिणी| होंगे। आपके भीतर एक भीड़ होगी। भक्ति तथा एकांत और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव और ___ यह जो इतना जोर है अव्यभिचारिणी भक्ति पर, कि एक का विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में अरति, प्रेम का न होना। भाव है तो एक का ही भाव रह जाए, इसका अर्थ यह है कि जितना और मुझ परमेश्वर में एकीभाव। बड़े दंभ की बात है, मुझ ही एक का भाव रहने लगेगा, उतना ही भीतर भी एकत्व घनीभूत परमेश्वर में एकीभाव! कृष्ण कहे ही चले जाते हैं कि मुझ परमेश्वर होने लगेगा; इंटीग्रेशन भीतर फलित हो जाएगा। इसलिए प्रेमी भी के साथ तू ऐसा संबंध बना। योग को उपलब्ध हो जाता है, और योगी प्रेमी हो जाता है। अहंकारी पढ़ेगा, तो बड़ी अड़चन में पड़ेगा। वह तो अर्जुन का __ अगर कोई पूरे मन से किसी एक व्यक्ति को प्रेम कर सके, तो बड़ा निकट संबंध था, बड़ी आत्मीयता थी, इसलिए अर्जुन ने एक | उस प्रेम में भी एकत्व घटित हो जाता है। भीतर इंटीग्रेशन हो जाता भी बार नहीं पूछा कि क्या बार-बार रट लगा रखी है, मुझ परमात्मा | है; भीतर सारे खंड जुड़ जाते हैं। अनेक स्वर समाप्त हो जाते हैं। में। उसने एक भी बार यह सवाल नहीं उठाया कि क्यों अपने को | एक ही स्वर और एक ही भाव रह जाता है। उस एक भाव के परमात्मा कह रहे हो? और क्यों अपने ही मुंह से कहे चले जा रहे | | माध्यम से प्रवेश हो सकता है अनंत में। अनेक को छोड़कर एक; हो कि मैं परमात्मा हूं? | और तब एक भी छूट जाता है और अनंत उपलब्ध होता है। वह इतना आत्मीय था, इतना निकट था, कि कृष्ण को जानता कृष्ण कहते हैं, अव्यभिचारिणी भक्ति! था कि यह घोषणा किसी अहंकार की घोषणा नहीं है। यह कहना | अनन्य रूप से मुझ एक में ही तू समर्पित हो जा। तेरे मन में यह सिर्फ अर्जुन को समर्पण के लिए राजी करने का उपाय है। खयाल भी न रहे कि कोई और भी हो सकता है, जिसके प्रति मुझ परमेश्वर में एकीभाव से स्थितिरूप ध्यान-योग के द्वारा समर्पण होना है। अगर उतना-सा खयाल भी रहा, तो समर्पण पूरा अव्यभिचारिणी भक्ति...। नहीं हो सकता। भक्ति अव्यभिचारिणी. इसे थोडा समझ लेना चाहिए। इधर मेरे पास अनेक लोग आते हैं। वे कहते हैं, हम इस गुरु के व्यभिचार का अर्थ होता है, अनेक के साथ लगाव। व्यभिचारिणी पास गए, फिर उस गुरु के पास गए, फिर उस गुरु के पास गए। कहते हैं हम उस स्त्री को, जो पति को भी दिखा रही है कि प्रेम | | वे गुरुओं के पास घूमते रहते हैं। उनकी यह व्यभिचारिणी मन की करती है, और उसके प्रेमी भी हैं, उनसे भी प्रेम कर रही है। और | | दशा उन्हें कहीं भी पहुंचने नहीं देती। उनसे मैं कहता हूं, तुम एक प्रेम एक खिलवाड़ है। क्षणभर भी कोई उसे एकांत में मिल जाए, | गुरु के पास रुक जाओ। वे कहते हैं, हमें पक्का कैसे पता लगे कि तो उससे भी प्रेम शरू हो जाएगा। मन में किसी एक की कोई जगह वही गुरु ठीक है, जब तक हम बहुतों के पास न जाएं। मैं उनसे नहीं है। कहता हूं कि वह गलत हो तो भी तुम एक के पास रुक जाओ। व्यभिचार का अर्थ है, मन में एक की जगह नहीं है। मन खंडित क्योंकि उसके गलत और सही होने का उतना बड़ा सवाल नहीं है, है। बहुत प्रेमी हैं, बहुत पति हैं; उसका अर्थ है व्यभिचार। एक! तो | तुम्हारा एक के प्रति रुक जाना तुम्हारे लिए क्रांतिकारी घटना बनेगी। मन अव्यभिचारी हो जाता है। | वह गलत होगा, वह वह जाने। उससे तुम चिता मत लो। तुम __ और बड़े मजे की बात है, समझने जैसी है, कि यह इतना जो | उसकी फिक्र मत करो। जोर है एक प्रेमी पर, यह प्रेमी के हित में नहीं है। असल में प्रेम कई बार ऐसा भी होता है कि गलत गुरु के पास भी ठीक शिष्य करने वाला अगर एक व्यक्ति को प्रेम करने में समर्थ हो जाए, तो सत्य को उपलब्ध हो जाता है। यह बात उलटी मालूम पड़ेगी। भक्ति । 252
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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