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to पुरुष-प्रकृति-लीला 0
दलाल ने ऐसी चर्चा की थी और इतनी कविताएं उद्धृत की थीं, और अचानक बहुत उत्साह में आ गए। मैंने पूछा, क्या हुआ? इशारा इतने शास्त्रों का उल्लेख किया था, और स्त्री के रंग-रूप और | | किया, दूर घाट पर एक सुंदर स्त्री की पीठ। बोले कि मैं अब न बैठ एक-एक अंग का ऐसा वर्णन किया था कि युवक बिलकुल | सकूँगा। बड़ा अनुपात है शरीर में। और बाल देखते हैं! और झुकाव उत्तेजित था कि शीघ्रता से मुझे ले चलो, दर्शन करने दो। देखते हैं! मैं जरा जाकर, शक्ल देख आऊं। मैंने कहा, जाओ।
लेकिन जब युवक ने दर्शन किया, तो उसके हाथ-पैर ढीले पड़ । वे गए। मैं उन्हें देखता रहा। बड़े आनंदित,जा रहे थे। उनके पैर गए। उसने दलाल के कान में कहा कि क्या इस स्त्री की तुम बातें | | में नृत्य था। कोई खींचे जा रहा है जैसे चुंबक की तरह। और जब कर रहे थे। इसको तुम सुंदर कहते हो? इसकी आंखें ऐसी भयावनी | | वे इस स्त्री के पास पहुंचे, तो भक्क से जैसे ज्योति चली गई। वे हैं, जैसे कि भूत-प्रेत हो। यह इतनी लंबी नाक मैंने कभी देखी नहीं। | | एक साधु महाराज थे, वे स्नान कर रहे थे। इसके दांत सब अस्तव्यस्त हैं। इसको किसी बच्चे को डराने के | ___ लौट आए, बड़े हताश। सब सुख लुट गया। माथे पर हाथ काम में लाया जा सकता है। तुम इसको सुंदर कह रहे थे? | रखकर बैठ गए। मैंने कहा, क्या मामला है? कहने लगे, अगर
उस दलाल ने कहा, तो मालूम होता है, तुम दकियानूसी हो। इफ | | यहीं बैठा रहता तो ही अच्छा था। साधु महाराज हैं। वह बाल से यू डोंट लाइक ए पिकासो, दैट इज़ नाट माई फाल्ट-और अगर धोखा हुआ। वहां स्त्री थी नहीं। तुम पिकासो के चित्र पसंद नहीं करते, तो इसमें मेरा कोई दोष नहीं | लेकिन उतनी देर उन्होंने स्त्री का सुख लिया था, जो वहां नहीं है। पिकासो ने ऐसे ही चित्र बनाए हैं। उसने कहा, मैं तो पिकासो | थी। वह सुख उनके अपने भीतर था। और अगर वहीं बैठे-बैठे चले जैसा-नोबल प्राइज पुरस्कृत व्यक्ति-और अगर तुम उसके चित्र जाते, तो शायद कविताएं लिखते। क्या करते, क्या न करते। शायद में सौंदर्य नहीं देख सकते, तो मेरा कोई कसूर नहीं है। यह स्त्री उसी जिंदगीभर याद रखते वह अनुपात शरीर का, वह झुकाव, वे गोल का प्रतीक है। यह आधुनिक बोध है। यह तुम कहां का दकियानूसी | | बांहें, वे बाल, वह गोरा शरीर, वह जिंदगीभर उन्हें सताता। संयोग खयाल रखे हुए हो! कालिदास पढ़ते हो? क्या करते हो? | से बच गए। देख लिया। छुटकारा हुआ। लेकिन दोनों भाव भीतर
आदमी के भीतर वह जो चैतन्य है, वह भाव निर्मित करता है। | थे। साधु महाराज को कुछ पता ही नहीं चला कि क्या हो रहा है भोक्ता, फिर भाव से भोगता है।
उनके आस-पास। वे दोनों उनके अपने ही भीतर उठे थे। ध्यान रहे, अगर आप भाव से भोगते हैं, तो भाव से दुख भी | सांख्य की धारणा है, वही कृष्ण कह रहे हैं, कि तुम जो भी भोग पाएंगे, सुख भी पाएंगे, दोनों पाएंगे। और मजा यह है कि फूल | रहे हो, वह तुम्हारे भीतर उठ रहा है। बाहर प्रकृति निष्पक्ष है। उसे बाहर है। न सुंदर है, न कुरूप है। और यह भाव आपका है। तुम्हारा कुछ लेना-देना नहीं है। तुम चाहे सुख पाओ, तुम चाहे दुख
तो कृष्ण कहते हैं कि सब कार्य-कारण उत्पन्न करने में प्रकृति है। पाओ, तुम ही जिम्मेवार हो। हेतु और पुरुष सुख-दुखों के भोक्तापन में अर्थात भोगने में हेतु __ और अगर यह बात खयाल में आ जाए कि मैं ही जिम्मेवार हूं, कहा जाता है।
| तो मुक्त होना कठिन नहीं है। तो फिर ठीक है, जब मैं ही जिम्मेवार सुख-दुख तुम पैदा करते हो, वह प्रकृति पैदा नहीं करती। प्रकृति हूं, और प्रकृति न तो सुख पैदा करती है और न दुख, मैं ही आरोपित निष्पक्ष है। कहना चाहिए, प्रकृति को पता ही नहीं है कि तुम नाहक | करता हूं। सुख और दुख मेरा आरोपण है प्रकृति के ऊपर; सुख सुख-दुख भोग रहे हो।
और दुख मेरे सपने हैं, जिन्हें मैं फैलाता हूं, और फैलाकर फिर एक फूल को पता चलता होगा कि तुम बड़े आनंदित हो रहे हो | | भोगता हूं। अपने ही हाथ से फैलाता हूं और खुद ही फंसता हूं और कि तुम बड़े दुखी हो रहे हो? फूल को कुछ पता नहीं चलता। फूल | भोगता हूं। अगर यह बात खयाल में आनी शुरू हो जाए, तो बड़ी को कुछ लेना-देना नहीं है। फूल अपने तईं खिल रहा है। तुम्हारे | अदभुत क्रांति घट सकती है। लिए खिल भी नहीं रहा है। तुमसे कोई संबंध ही नहीं है। तुम | जब आपके भीतर सुख का भाव उठने लगे, तब जरा चौंककर असंगत हो। लेकिन तुम एक भाव पैदा कर रहे हो। उस भाव से | | खड़े हो जाना और देखना कि प्रकृति कुछ भी नहीं कर रही है, मैं तुम डांवाडोल हो रहे हो। वह भाव तुम्हारे भीतर है।
ही कुछ भाव पैदा कर रहा हूं। आपके चौंकते ही भाव गिर जाएगा। मेरे एक मित्र हैं। बैठे थे एक दिन गंगा के किनारे मेरे साथ। आपके होश में आते ही भाव गिर जाएगा। प्रकृति वहां रह जाएगी,
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