________________
गीता दर्शन भाग-6
पश्चिम इतना विक्षिप्त मालूम हो रहा है। इस विक्षिप्तता के पीछे पुरुषार्थ का आग्रह है ।
पूरब बड़ा शांत था। यहां जो भी हो रहा था, कोई जिम्मेवारी व्यक्ति की न थी, उस परम नियंता की थी। यह सच है या झूठ, यह सवाल नहीं है। पुरुषार्थ ठीक है कि भाग्य, यह सवाल नहीं है।
रे लिए तो पुरुषार्थ चिंता पैदा करने का उपाय है। अगर किसी को चिंता पैदा करनी है, तो पुरुषार्थ सुगम उपाय है। अगर आपको चिंता में रस है, तो आप सारी जिम्मेवारी अपने ऊपर ले लें। और अगर आपको चिंता में रस नहीं है और समाधि में रस है, तो सारी जिम्मेवारी परमात्मा पर छोड़ दें । परमात्मा न भी हो, तो कोई फर्क नहीं पड़ता। आपके छोड़ने से फर्क पड़ता है।
समझ लें। परमात्मा न भी हो, कहीं कोई परमात्मा न हो, लेकिन आप परमात्मा पर छोड़ दें, आपसे उतर जाए, आपके खयाल से हट जाए; आप जिम्मेवार नहीं हैं, कोई और जिम्मेवार है, बात समाप्त हो गई। आपकी चिंता विलीन हो गई। चिंता के मूल आधार अस्मिता, अहंकार, मैं है ।
इसे एक विधि की तरह समझें और प्रयोग करें, तो आप चकित हो जाएंगे। आपकी जिंदगी को बदलने में भाग्य की धारणा इतना अदभुत काम कर सकती है, जिसका कोई हिसाब नहीं है।
लेकिन बहुत सजग होकर उसका प्रयोग करना पड़े। कोई आदमी आपको गाली देता है, तो आप स्वीकार करते हैं कि परमात्मा की मर्जी है। आपके भीतर क्रोध आ जाता है, तो भी आप स्वीकार करते हैं कि परमात्मा की मर्जी । मार-पीट हो जाती है, तो भी आप स्वीकार करते हैं कि परमात्मा की मर्जी । वह आपकी छाती पर बैठ जाता है, तो भी आप स्वीकार करते हैं कि परमात्मा की मर्जी; या आप उसकी छाती पर बैठ जाते हैं, तो भी आप स्वीकार करते हैं कि परमात्मा की मर्जी है।
ध्यान रहे, जब वह आपकी छाती पर बैठा हो, तब स्वीकार करना बहुत आसान है कि परमात्मा की मर्जी है; जब आप उसकी छाती पर बैठे हों, तब स्वीकार करना बहुत मुश्किल है कि परमात्मा की मर्जी है । क्योंकि आप काफी कोशिश करके उसकी छाती पर बैठ पाए हैं। उस वक्त मन में यही होता है कि अपने पुरुषार्थ का ही फल है कि इसकी छाती पर बैठे हैं।
सुख के क्षण में परमात्मा की मर्जी साधना है। सफलता के क्षण परमात्मा की मर्जी साधना है। विजय के क्षण में परमात्मा की मर्जी का स्मरण साधना है।
356
तो आपकी जिंदगी बदल जाती है। अनिवार्यरूपेण आप बिलकुल नए हो जाते हैं। चिंता का केंद्र टूट जाता है। अब हम सूत्र को लें।
इस प्रकार जानकर जो पुरुष नष्ट होते हुए सब चराचर भूतों में नाशरहित परमेश्वर को समभाव से स्थित देखता है, वही देखता है। कौन देखता कौन जानता है? किसके पास दर्शन है, दृष्टि है ? उसकी व्याख्या है। किसका जानना सही जानना | किसके पास असली आंख है ? कौन देखता है?
और
इस प्रकार जानकर जो पुरुष नष्ट होते हुए सब चराचर भूतों में नाशरहित परमेश्वर को समभाव से स्थित देखता है, वही देखता है।
यह संसार हम सब देखते हैं। इसमें सभी नाश होता दिखाई पड़ता है। सभी परिवर्तित होता दिखाई पड़ता है। सभी लहरों की तरह दिखाई पड़ता है, क्षणभंगुर । इसे देखने के लिए कोई बड़ी गहरी आंखों की जरूरत नहीं है। जो आंखें हमें मिली हैं, वे काफी हैं। इन आंखों से ही दिखाई पड़ जाता है।
लेकिन बड़ी कठिनाई है। इन आंखों से ही दिखाई पड़ जाता है कि यहां सब क्षणभंगुर है। लेकिन हममें बहुत-से लोग आंखें होते हुए बिलकुल अंधे हैं। यह भी दिखाई नहीं पड़ता कि यहां सब क्षणभंगुर है। यह भी दिखाई नहीं पड़ता। हम क्षणभंगुर वस्तुओं को भी इतने जोर से पकड़ते हैं, उससे पता चलता है कि हमें भरोसा है कि चीजें पकड़ी जा सकती हैं और रोकी जा सकती हैं।
एक युवक मेरे पास आया और उसने कहा कि एक युवती से मेरा प्रेम है। लेकिन कभी प्रेमपूर्ण लगता है मन, और कभी घृणा से भर जाता है । और कभी मैं चाहता हूं, इसके बिना न जी सकूंगा। और कभी मैं सोचने लगता हूं, इसके साथ जीना मुश्किल है। मैं क्या करूं?
मैं उससे पूछा, तू चाहता क्या है? तो उसने कहा, चाहता तो मैं यही हूं कि सतत मेरा प्रेम इसके प्रति बना रहे। फिर मैंने उससे कहा कि तू दिक्कत में पड़ेगा। क्योंकि इस जगत में सभी क्षणभंगुर है, प्रेम भी । यह तो तेरी आकांक्षा ऐसी है, जैसे कोई आदमी कहे कि मुझे भूख कभी न लगे; पेट मेरा भरा ही रहे। भूख लगती है, इसीलिए पेट भरने का खयाल पैदा होता है। भूख लगनी जरूरी है, तो ही पेट भरने का प्रयास होगा। और पेट भरते ही भूख मिट जाएगी। लेकिन पेट भरते ही नई भूख पैदा होनी शुरू हो जाएगी। एक वर्तुल है।
रात है, दिन है। ऐसे ही प्रेम है और घृणा है। आकर्षण है और