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________________ ॐ प्रेम का द्वार ः भक्ति में प्रवेश 0 प्रेम देना भी पड़ेगा। सिर्फ जो आदमी प्रेम ले लेता है, वह भी मर इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर कृष्ण ने कहा, हे अर्जुन, मेरे में जाता है। उसने सिर्फ श्वास ली. श्वास छोड़ी नहीं। मन को एकाग्र करके निरंतर मेरे भजन व ध्यान में लगे हुए जो इस दुनिया में दो तरह के मुर्दे हैं, एक जो श्वास न लेने से मर | भक्तजन अति श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त हुए मुझ सगुणरूप परमेश्वर को गए हैं, एक जो श्वास न देने से मर गए हैं। और जिंदा आदमी वही | भजते हैं, वे मेरे को योगियों में भी अति उत्तम योगी मान्य हैं अर्थात है, जो श्वास लेता भी उतने ही आनंद से है, श्वास देता भी उतने | उनको मैं अति श्रेष्ठ मानता है। ही आनंद से है; तो जीवित रह पाता है। मेरे में मन को एकाग्र करके निरंतर मेरे भजन व ध्यान में लगे हुए प्रेम एक गहरी श्वास है। और प्रेम के बिना भीतर का जो गहन जो भक्तजन अति श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त हुए मुझ सगुणरूप परमेश्वर छिपा हुआ प्राण है, वह जीवित नहीं होता। इसकी भूख है। इसलिए को भजते हैं...। इसमें बहुत-सी बातें समझ लेने जैसी हैं। प्रेम के बिना आप असुविधा अनुभव करेंगे। मुझमें मन को एकाग्र करके! यह प्रेम की भूख अध्यात्म बन सकती है। अगर यह प्रेम की | क्या आपने कभी खयाल किया कि एकाग्रता प्रेम की भूमि में भूख मूल की तरफ लौटा दी जाए; अगर यह प्रेम की भूख पदार्थ सहज ही फलित हो जाती है! प्रेम की भूमि हो, तो एकाग्रता अपने की तरफ से परमात्मा की तरफ लौटा दी जाए; अगर यह प्रेम की | आप अंकुरित हो जाती है। असल में आप अपने मन को एकाग्र भख परिवर्तनशील जगत से शाश्वत की तरफ लौटा दी जाए. तो | इसीलिए नहीं कर पाते, क्योंकि जिस विषय पर आप एकाग्र करना यह भक्ति बन जाती है। चाहते हैं, उससे आपका कोई प्रेम नहीं है। इसलिए कृष्ण यह कहते हैं कि प्रेम का, भक्ति का मार्ग श्रेष्ठ है, | | अगर एक विद्यार्थी मेरे पास आता है और कहता है, मैं पढ़ता तो उसके कारण हैं। एक तो अर्जुन से, और दूसरा सारी मनुष्य जाति | हूं-डाक्टरी पढ़ता हूं, इंजीनियरिंग पढ़ता हूं-लेकिन मेरा मन नहीं से। क्योंकि ऐसा व्यक्ति खोजना मुश्किल है, अति मुश्किल है, | लगता, मन एकाग्र नहीं होता; तो मैं पहली बात यही पूछता हूं कि जिसके लिए प्रेम का कोई भी मूल्य न हो। जो भी तू पढ़ता है, उससे तेरा प्रेम है ? क्योंकि अगर प्रेम नहीं है, तो जिसके लिए प्रेम का कोई भी मूल्य नहीं है, निर्विचार उसकी एकाग्रता असंभव है। और जहां प्रेम है, वहां एकाग्रता न हो, ऐसा साधना होगी। वह अपने को शून्य कर सकता है। जिसका प्रेम मांग असंभव है। वही युवक कहता है कि उपन्यास पढ़ता हूं, तो मन कर रहा है पुष्पित-पल्लवित होने की, बेहतर है कि वह भक्ति के एकाग्र हो जाता है। फिल्म देखता हूं, तो मन एकाग्र हो जाता है। द्वार से परमात्मा को, सत्य को खोजने निकले। तो जहां प्रेम है, वहां एकाग्रता हो जाती है। जहां लगाव है, वहां अर्जन का यह पछना अपने लिए ही है। लेकिन हम अक्सर एकाग्रता हो जाती है। जब भी आप पाएं कि किसी बात में आपकी अपने को बीच में नहीं रखते, पूछते समय भी। अर्जुन यह नहीं कह | एकाग्रता नहीं होती, तो एकाग्रता करने की कोशिश न करके इस बात रहा है कि मेरे लिए कौन-सा मार्ग श्रेष्ठ है। अर्जुन कहता है, | को पहले समझने की कोशिश कर लेनी चाहिए कि मेरा प्रेम भी वहां कौन-सा मार्ग श्रेष्ठ है। लेकिन उसकी गहन कामना अपने लिए ही | | है या नहीं है? प्रेम के लिए एकाग्रता का प्रश्न ही नहीं उठता। है। क्योंकि हमारे सारे प्रश्न अपने लिए ही होते हैं। अगर आइंस्टीन अपने गणित को हल करता है, तो उसे एकाग्रता ___ आप जब भी कुछ पूछते हैं, तो आपका पूछना निर्वैयक्तिक करनी नहीं पड़ती। गणित उसका प्रेम है। उसकी प्रेयसी भी बैठी नहीं होता; हो भी नहीं सकता। भला आप प्रश्न को कितना ही रहे, तो वह प्रेयसी को भूल जाएगा और गणित को नहीं भूलेगा। निर्वैयक्तिक बनाएं, आप उसके भीतर खड़े होते हैं और आपका डाक्टर राममनोहर लोहिया मिलने गए थे आइंस्टीन को, तो छ: प्रश्न आपके संबंध में खबर देता है। आप जो भी पूछते हैं, उससे घंटे उनको प्रतीक्षा करनी पड़ी। और आइंस्टीन अपने बाथरूम में आपके संबंध में खबर मिलती है। है और निकलता ही नहीं। आइंस्टीन की पत्नी ने बार-बार उनको अर्जुन को यह सवाल उठा है कि कौन-सा है श्रेष्ठ मार्ग। यह कहा कि आप चाहें तो जा सकते हैं; आपको बहुत देर हो गई। और सवाल इसीलिए उठा है कि किस मार्ग पर मैं चलूं? किस मार्ग से | क्षमायाचना मांगी। लेकिन कोई उपाय नहीं है। यही संभावना है कि मैं प्रवेश करूं? कौन से मार्ग से मैं पहुंच सकूँगा? कृष्ण जो उत्तर वे अपने बाथ टब में बैठकर गणित सुलझाने में लग गए होंगे। दे रहे हैं, उसमें अर्जुन खयाल में है। छः घंटे बाद आइंस्टीन बाहर आया, तो बहुत प्रसन्न था, क्योंकि
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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