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________________ ॐ गीता दर्शन भाग-60 अपने ही गृह-उद्योग खोल लेते हैं शाश्वत को बनाने के। और दूसरे | | ले शाश्वत को परिवर्तनशील में। बनाने की जरूरत नहीं है; हमारे वे, जो क्षणभंगुर को देखकर अपना गृह-उद्योग नहीं खोलते | बनाए वह न बनेगा। वह मौजूद है। वह जो परिवर्तन है, वह केवल शाश्वत को बनाने का, बल्कि क्षणभंगुर में ही गहरा प्रवेश करते | ऊपर की पर्त है, परदा है। उसके भीतर वह छिपा है, चिरंतन। हम हैं। अपनी दृष्टि को एकाग्र करते हैं। और क्षणभंगुर की परतों को | सिर्फ परदे को हटाकर देखने में सफल हो जाएं। पार करते हैं। क्षणभंगुर लहरों के नीचे वे शाश्वत के सागर को । हम कब तक सफल न हो पाएंगे? जब तक हम अपने उपलब्ध कर लेते हैं। गृह-उद्योग जारी रखेंगे और शाश्वत को बनाने की कोशिश करते कृष्ण कहते हैं, इस प्रकार जानकर जो पुरुष नष्ट होते हुए सब | | रहेंगे। जब तक हम परिवर्तन के विपरीत अपना ही सनातन बनाने चराचर भूतों में नाशरहित परमेश्वर को समभाव से स्थित देखता की कोशिश करेंगे, तब तक हम परिवर्तन में छिपे शाश्वत को न है, वही देखता है। देख पाएंगे। उसके पास ही आंख है, वही आंख वाला है, वही प्रज्ञावान है, __गृहस्थ का आध्यात्मिक अर्थ होता है, जो अपना शाश्वत बनाने जो इस सारी क्षणभंगुरता की धारा के पीछे समभाव से स्थित में लगा है। संन्यस्थ का आध्यात्मिक अर्थ होता है, जो अपना . शाश्वत को देख लेता है। शाश्वत नहीं बनाता, जो परिवर्तन में शाश्वत की खोज में लगा है। एक बच्चा पैदा हुआ। आप देखते हैं, जीवन आया। फिर वह गृहस्थ का अर्थ है, घर बनाने वाला। संन्यस्थ का अर्थ है, घर बच्चा जवान हुआ, फिर बूढ़ा हुआ और फिर मरघट पर आप उसे खोजने वाला। संन्यासी उस घर को खोज रहा है, जो शाश्वत है विदा कर आए। और आप देखते हैं, मौत आ गई। ही, जिसको किसी ने बनाया नहीं। वही परमात्मा है, वही असली कभी इस जन्म और मौत दोनों के पीछे समभाव से स्थित कोई घर है। और जब तक उसको नहीं पा लिया, तब तक हम घरविहीन, चीज आपको दिखाई पड़ी? जन्म दिख जाता है, मृत्यु दिख जाती होमलेस, भटकते ही रहेंगे। है। लेकिन जन्म और मृत्यु के भीतर जो छिपा हुआ जीवन है, वह गृहस्थ वह है, जो परमात्मा की फिक्र नहीं करता। यह चारों तरफ हमें कभी दिखाई नहीं पड़ता। क्योंकि जन्म के पहले भी जीवन था, परिवर्तन है, इसके बीच में पत्थर की मजबूत दीवालें बनाकर अपना और मृत्यु के बाद भी जीवन होगा। घर बना लेता है खुद। और उस घर को सोचता है, मेरा घर है, मेरा मृत्यु और जन्म जीवन की विराट व्यवस्था में केवल दो घटनाएं आवास है। हैं। जन्म एक लहर है और मृत्यु लहर का गिर जाना है। लेकिन __ गृहस्थ का अर्थ है, जिसका घर अपना ही बनाया हुआ है। जिससे लहर बनी थी, वह जो सागर था, वह जन्म के पहले भी था संन्यस्थ का अर्थ है, जो उस घर की तलाश में है जो अपना बनाया और मृत्यु के बाद भी होगा। वह हमें दिखाई नहीं पड़ता। हुआ नहीं है, जो है ही। तो जन्म के समय हम बैंड-बाजे बजा लेते हैं कि जीवन आया, ___दो तरह के शाश्वत हैं, एक शाश्वत जो हम बनाते हैं, वे झूठे उत्सव हुआ। फिर मृत्यु के समय हम रो-धो लेते हैं कि जीवन गया, ही होने वाले हैं। हमसे क्या शाश्वत निर्मित होगा! शाश्वत तो वह उत्सव समाप्त हुआ, मौत घट गई। लेकिन दोनों स्थितियों में हम है, जिससे हम निर्मित हुए हैं। आदमी जो भी बनाएगा, वह टूट चूक गए उसे देखने से, जो न कभी पैदा होता है और न कभी नष्ट | जाएगा, बिखर जाएगा। आदमी जिससे बना है, जब तक उसको न होता है। पर हमारी आंखें उसको नहीं देख पातीं। खोज ले, तब तक सनातन, शाश्वत, अनादि, अनंत का कोई __ अगर हम जन्म और जीवन के भीतर परम जीवन को देख पाएं, | | अनुभव नहीं होता। तो कृष्ण कहते हैं, तो तुम्हारे पास आंख है। और जब तक उसका अनुभव न हो जाए, तब तक हमारे जीवन तो आंख की एक परिभाषा हुई कि परिवर्तनशील में जो शाश्वत में चिंता, पीड़ा, परेशानी रहेगी। क्योंकि जहां सब कुछ बदल रहा को देख ले। जहां सब बदल रहा हो. वहां उसे देख ले. जो कभी | है, वहां निश्चित कैसे हुआ जा सकता है? जहां पैर के नीचे से नहीं बदलता है। वह आंख वाला है। जमीन खिसकी जा रही हो, वहां कैसे निश्चित रहा जा सकता है? इसलिए हमने इस मुल्क में फिलासफी को दर्शन कहा है। | जहां हाथ से जीवन की रेत खिसकती जाती हो, और जहां एक-एक फिलासफी को हमने दर्शन कहा है। दर्शन का अर्थ है यह, जो देख पल जीवन रिक्त होता जाता हो और मौत करीब आती हो, वहां कैसे 358
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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