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________________ दो मार्ग : साकार और निराकार प्रार्थना कर रहा था। इस गरीब फकीर को देखकर ही उस पंडित को लगा...। पंडित को सदा ही लगता है कि दूसरा अज्ञानी है। पंडित होने का मजा ही यही है कि दूसरे का अज्ञान दिखाई पड़ता है। और दूसरे के अज्ञान में अहंकार को तुष्टि मिलती है। तो पंडित को देखकर ही लगा कि यह गरीब फकीर, कपड़े-लत्ते भी ठीक नहीं, शक्ल-सूरत से भी पढ़ा-लिखा, सुसंस्कृत नहीं मालूम पड़ता है, गंवार है, यह क्या प्रार्थना कर रहा होगा ! और जब तक मेरी अभी प्रार्थना नहीं सुनी गई, इसकी कौन सुन रहा होगा ! ऐसे अशिष्ट, गंवार आदमी की — असंस्कृत — इसकी प्रार्थना कहां परमात्मा तक पहुंचती होगी! मैं परिष्कार कर-करके हैरान हो गया और प्रार्थना को बारीक से बारीक कर लिया है, शुद्धतम कर लिया है; अभी मेरी आवाज नहीं पहुंची, इसकी क्या पहुंचती होगी! फिर भी उसे जिज्ञासा हुई कि यह कह क्या रहा है ! वह धीरे-धीरे गुनगुना रहा था। वह फकीर कह रहा था, परमात्मा से कि मुझे भाषा नहीं आती; और शब्दों का जमाना भी मुझे नहीं आता। तो मैं पूरी अल्फाबेट | बोले देता हूं। ए बी सी डी, पूरी बोले देता हूं। तू ही जमा ले, क्योंकि इन्हीं सब अक्षरों में तो सब प्रार्थनाएं आ जाती हैं। तू ही जमा ले कि मेरे काम का क्या है और तू ही प्रार्थना बना ले। वह पंडित तो बहुत घबड़ा गया कि हद्द की मूढ़ता है। यह क्या कह रहा है! कि मैं तो सिर्फ अल्फाबेट जानता हूं; यह बारहखड़ी जानता हूं; यह मैं पूरी बोले देता हूं। अब जमाने का काम तू ही कर ले, क्योंकि सभी शास्त्र इन्हीं में तो आ जाते हैं, और सभी प्रार्थनाएं | इन्हीं से तो बनती हैं। और मुझसे भूल हो जाएगी । तू ठीक जमा लेगा। तेरी जो मर्जी, वही मेरी मर्जी! वह पंडित तो बहुत घबड़ा गया। उसने आंख बंद कीं और परमात्मा से कहा कि हद्द हो गई। मेरी प्रार्थना अभी तक तुझ तक नहीं पहुंची, क्योंकि मेरी कोई मांग पूरी नहीं हुई। क्योंकि मांग पूरी हो, तो ही हम समझें कि प्रार्थना पहुंची। और यह आदमी, यह क्या कह रहा है! सुना उसने अपने ध्यान में कि उसकी प्रार्थना पहुंच गई। क्योंकि न तो उसकी कोई मांग है, न पांडित्य का कोई दंभ है। वह यह भी नहीं कह रहा है कि मेरी मांग क्या है। वह कह रहा है कि तू ही जमा ले। जो इतना मुझ पर छोड़ देता है, उसकी प्रार्थना पहुंच गई। प्रार्थना है उस पर छोड़ देना। खुद पकड़कर रख लेना वासना है; 19 उस पर छोड़ देना प्रार्थना है। अपने को समझदार मानना वासना है; सारी समझ उसकी और हम नासमझ, ऐसी भाव- दशा प्रार्थना है। एक दूसरे मित्र ने पूछा है, कल आपने कहा कि बाहर के व्यक्तियों और वस्तुओं की ओर बहता हुआ प्रेम वासना है और स्वयं के भीतर चैतन्य-केंद्र की ओर वापस लौटकर बहता हुआ प्रेम श्रद्धा है, भक्ति है। किंतु भक्ति योग में तो बाहर स्वयं से भिन्न किसी इष्टदेव की ओर साधक की चेतना बहती है। तब तो आपके कथनानुसार यह भी वासना हो गई, श्रद्धा व भक्ति नहीं। समझाएं कि भक्ति योग साधक की चेतना बाहर, पर की ओर बहती है या भीतर स्व की ओर ? थो 'ड़ा जटिल है, लेकिन समझने की कोशिश करें। जैसे ही साधक यात्रा शुरू करता है, उसे भीतर का तो कोई पता नहीं। वह तो बाहर को ही जानता है। उसे तो बाहर का ही अनुभव है। अगर उसे भीतर भी ले जाना है, तो भी बाहर के ही सहारे भीतर ले जाना होगा। और बाहर भी छुड़ाना है, तो धीरे-धीरे बाहर के सहारे ही छुड़ाना होगा। तो परमात्मा को बाहर रखा जाता है। यह सिर्फ उपाय है, एक डिवाइस, कि परमात्मा वहां ऊपर आकाश में है। परमात्मा सब जगह है। ऐसी कोई जगह नहीं, जहां वह नहीं है। बाहर भी वही है, भीतर भी वही है। सच तो यह है कि बाहर-भीतर हमारे फासले हैं। उसके लिए बाहर और भीतर कुछ भी नहीं है। घर में आप कहते हैं कि कमरे के भीतर जो आकाश है, वह भीतर है; और कमरे के बाहर आकाश है, वह बाहर है। वह आकाश एक है। दीवालें गिर जाएं, तो न कुछ बाहर है, न भीतर है। जो हमें भीतर मालूम पड़ता है और बाहर मालूम पड़ता है, वह भी एक है। सिर्फ हमारे अहंकार की पतली सी दीवाल है, जो फासला खड़ा करती है । इसलिए लगता है कि भीतर मेरी आत्मा और बाहर आपकी आत्मा । लेकिन वह आत्मा आकाश की तरह है। जिस दिन मैं का भाव गिर जाता है, उस दिन बाहर - भीतर भी गिर जाता है। उस दिन वही रह जाता है; बाहर-भीतर नहीं होता। लेकिन साधक जब शुरू
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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