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गीता दर्शन भाग-6
करेगा, तो बाहर की ही भाषा उससे बोलनी पड़ेगी। आप वही भाषा तो समझेंगे, जो आप जानते हैं।
यह बड़े मजे की बात है। अगर आपको कोई विदेशी भाषा भी सीखनी हो, तो भी उसी भाषा के जरिए समझानी पड़ेगी, जो आप जानते हैं। आप बाहर की भाषा जानते हैं। भीतर की भाषा को भी समझाने के लिए बाहर की भाषा से शुरू करना होगा।
तो परमात्मा को भक्त रखता है बाहर। और कहता है, संसार के प्रति सारी वासना छोड़ दो और सारी वासना को परमात्मा के प्रति लगा लो। यह भी इसीलिए कि वासना ही हमारे पास है, और तो हमारे पास कुछ भी नहीं है। लेकिन वासना की एक खूबी है कि वासना को अगर बचाना हो, तो अनेक वासनाएं चाहिए। वासना | को बचाना हो, तो नित नई वासना चाहिए। और जितनी ज्यादा | वासनाएं हों, उतनी ही वासना बचेगी। जैसे ही सारी वासना को परमात्मा पर लगा दिया जाए, वासना तिरोहित होने लगती है।
एक उदाहरण के लिए छोटा सा प्रयोग आप करके देखें, तो आपको पता चलेगा। एक दीए को रख लें रात अंधेरे में अपने कमरे
और अपनी आंखों को दीए पर एकटक लगा दें। दो-तीन मिनट ही अपलक देखने पर आपको बीच-बीच में शक पैदा होगा कि दीया नदारद हो जाता है। दीए की ज्योति बीच-बीच में खो जाएगी। अगर आपकी आंख एकटक लगी रही, तो कई बार आप घबड़ा जाएंगे कि ज्योति कहां गई! जब आप घबड़ाएंगे, तब फिर ज्योति आ जाएगी। ज्योति कहीं जाती नहीं। लेकिन अगर आंखों की देखने की क्षमता बचानी हो, तो बहुत-सी चीजें देखना जरूरी है। अगर आप एक ही चीज पर लगा दें, तो थोड़ी ही देर में आंखें देखना बंद कर देती हैं। इसलिए ज्योति खो जाती है।
जिस चीज पर आप अपने को एकाग्र कर लेंगे, और सब चीजें तो खो जाएंगी पहले, एक चीज रह जाएगी। थोड़ी देर में वह एक भी खो जाएगी। एकाग्रता पहले और चीजों का विसर्जन बन जाती है, और फिर उसका भी, जिस पर आपने एकाग्रता की।
अगर सारी वासना को संसार से खींचकर परमात्मा पर लगा दिया, तो पहले संसार खो जाएगा। और एक दिन आप अचानक पाएंगे कि परमात्मा बाहर से खो गया। और जिस दिन परमात्मा भी बाहर से खो जाता है, आप अचानक भीतर पहुंच जाते हैं। क्योंकि अब बाहर होने का कोई उपाय न रहा। संसार पकड़ता था, उसे छोड़ दिया परमात्मा के लिए। और जब एक बचता है, तो वह अचानक खो जाता है। आप अचानक भीतर आ जाते हैं।
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फिर यह जो परमात्मा की धारणा हमने बाहर की है, यह हमारे भीतर जो छिपा है, उसकी ही श्रेष्ठतम धारणा है। वह जो आपका भविष्य है, वह जो आपकी संभावना है, उसकी ही हमने बाहर धारणा की है। वह बाहर है नहीं, वह हमारे भीतर है, लेकिन हम बाहर की ही भाषा समझते हैं। और बाहर की भाषा से ही भीतर की भाषा सीखनी पड़ेगी।
अभी मनोवैज्ञानिक इस पर बहुत प्रयोग करते हैं कि एकाग्रता में | आब्जेक्ट क्यों खो जाता है। जहां भी एकाग्रता होती है, अंत में जिस पर आप एकाग्रता करते हैं, वह विषय भी तिरोहित हो जाता है; वह भी बचता नहीं। उसके खो जाने का कारण यह है कि हमारे मन का अस्तित्व ही चंचलता है। मन को बहने के लिए जगह चाहिए, तो ही मन हो सकता है। मन एक बहाव है। एक नदी की धार है। अगर मन को बहाव न मिले, तो वह समाप्त हो जाता है। वह उसका स्वभाव है।
स्थिर मन जैसी कोई चीज नहीं होती। और जब हम कहते हैं, चंचल मन, तो हम पुनरुक्ति करते हैं। चंचल मन नहीं कहना चाहिए, क्योंकि चंचलता ही मन है। जब हम चंचल मन कहते हैं, तो हम दो शब्दों का उपयोग कर रहे हैं व्यर्थ ही, क्योंकि मन का अर्थ ही चंचलता है। और थिर मन जैसी कोई चीज नहीं होती। जहां थिरता आती है, मन तिरोहित हो जाता है। जैसे स्वस्थ बीमारी जैसी कोई बीमारी नहीं होती। जैसे ही स्वास्थ्य आता है, बीमारी खो जाती है; वैसे ही थिरता आती है, मन खो जाता है। मन के होने के लिए अथिरता जरूरी है।
ऐसा समझें कि सागर में लहरें हैं, या झील पर बहुत लहरें हैं। झील अशांत है। तो हम कहते हैं, लहरें बड़ी अशांत हैं। कहना नहीं चाहिए, क्योंकि अशांति ही लहरें हैं। फिर जब शांत हो जाती है | झील, तब क्या आप ऐसा कहेंगे कि अब शांत लहरें हैं ! लहरें होतीं ही नहीं। जब लहरें नहीं होतीं, तभी शांति होती है। जब झील शांत होती है, तो लहरें नहीं होतीं। लहरें तभी होती हैं, जब झील अशांत होती है। तो अशांति ही लहर है।
आपकी आत्मा झील है, आपका मन लहरें है। शांत मन जैसी कोई चीज नहीं होती। अशांति ही मन है।
तो अगर हम किसी भी तरह से किसी एक चीज पर टिका लें अपने को, तो थोड़ी ही देर में मन खो जाएगा, क्योंकि मन एकाग्र हो ही नहीं सकता। जो एकाग्र होता है, वह मन नहीं है; वह भीतर का सागर है। वह भीतर की झील है। वही एकाग्र हो सकती है।