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6 गीता दर्शन भाग-60
ऐसा ही लगता है कि महासुख का नाम आनंद है। भूलकर भी ऐसा | पड़ती है। लेकिन अगर मेरी बात अनुभव करनी है, तो भाव से मत सोचना। आनंद का सुख से उतना ही संबंध है, जितना दुख से। | करनी पड़ेगी। समझ के लिए बुद्धि जरूरी है। लेकिन समझ या उतना ही संबंध नहीं है। आनंद का अर्थ है, जहां सुख-दुख दोनों | | अनुभव नहीं है। अगर समझ पर ही रुक गए और समझदार होकर व्यर्थ हो गए, वह चित्त की दशा।
ही रुक गए, तो आप बड़े नासमझ हैं। समर्पण के बाद आनंद है। लेकिन अगर न हो, तो समझना कि | मैं जो कह रहा हूं, उसे समझने के लिए बुद्धि की जरूरत है। समर्पण नहीं है। यह मत समझना कि समर्पण के बाद आनंद नहीं लेकिन मैं जो कह रहा हूं, उसका अनुभव करने के लिए भाव की है। समर्पण के बाद आनंद न हो, तो समझना कि समर्पण नहीं है। जरूरत है। तो बुद्धि से समझ लेना, और फिर भाव से करने में उतर समर्पण के बाद आनंद है ही। समर्पण शरीर है और आनंद उसकी जाना। अगर बुद्धि पर ही रुक गए और भाव तक न गए, तो वह आत्मा है। लेकिन समर्पण पूरा होना चाहिए।
| समझ बेकार हो गई और मैं आपका दुश्मन साबित हुआ। आप वैसे पूरे समर्पण का अर्थ है कि अब मेरा कोई चुनाव नहीं। अब मैं | | ही काफी बोझ से भरे थे और मैंने थोड़ा बोझ बढ़ा दिया। आपके नहीं कहता, यह मिले; अब मैं यह नहीं कहता, यह न मिले। अब | मस्तिष्क पर ऐसे ही काफी कूड़ा-करकट इकट्ठा है, उसमें मैंने और . मैं हूं ही नहीं। अब मेरा कोई निर्णय नहीं है। अब मैंने अपनी | | थोड़ा उपद्रव जोड़ दिया। बागडोर उसके हाथ में डाल दी है। वह पूरब ले जाए तो ठीक, बुद्धि का काम है समझ लेना। लेकिन वहीं रुक जाना बुद्धिमान पश्चिम ले जाए तो ठीक, कहीं न ले जाए तो ठीक। जो भी वह करे, | | का लक्षण नहीं है। समझकर उसे प्रयोग में ले आना और भाव में ठीक। मेरी हां बेशर्त है। वह जो भी कहेगा, मैं कहूंगा, हां। | उतार देना, अनुभव बना लेना। ।
फिर चिंता आपको नहीं रह जाएगी कि सुख-दुख के भाव उठेंगे, और जब तक कोई चीज अनुभव न बन जाए, तब तक ऐसी ही तो हम उनको कैसे रोकेंगे। आप ही न बचेंगे, उनको रोकने की | | हालत होती है कि आप कोई चीज पेट में गटक लें और पचा न आपको कोई भी जरूरत न रह जाएगी। वे भी न बचेंगे। आपके | | पाएं। तो बीमारी पैदा करेगी, विजातीय हो जाएगी, जहर बन साथ ही समाप्त हो जाएंगे। वे आपके ही संगी-साथी हैं। | जाएगी, और शरीर से बाहर निकालने का उपाय करना पड़ेगा। __ अहंकार का ही पहलू है एक सुख, और एक दुख। अहंकार को | | लेकिन आप कोई चीज चबाएं, ठीक से पचाएं, तो खून बनती है, जो बात रुचती है वह सुख, जो बात नहीं रुचती वह दुख। अहंकार मांस-मज्जा बनती है। बीमारी नहीं होती: फिर उससे स्वास्थ्य पैदा खो जाता है, दोनों भी खो जाते हैं। जो शेष रह जाता है, उसको | होता है। नियंत्रण करने की जरूरत भी नहीं है।
"बुद्धि का काम है कि आपके भीतर ले जाए, लेकिन भाव का और जिसने परमात्मा के हाथ में अपनी नाव छोड़ दी, अब काम है कि पचाए। और जब तक आप भाव से पचा न सकें, उसको अपने साथ नियंत्रण की समझदारी ले जाने की जरूरत नहीं | डायजेस्ट न कर सकें, तब तक सब ज्ञान जहर हो जाता है। तो है। उसकी समझदारी अब काम भी नहीं पड़ेगी।
अच्छा हो कि अपने कान बंद कर लेना चाहिए। जो बात भाव में न | उतारनी हो, उसे न सुनना ही बेहतर है। क्या सार है?
| हम खाने में उन्हीं चीजों को खाते हैं. जिन्हें हमें पचाना है। जिन्हें एक मित्र ने पूछा है, आपकी बातों को समझने के नहीं पचाना है, उन्हें नहीं खाते। नहीं खाना चाहिए, क्योंकि उन्हें लिए तो बुद्धि की ही आवश्यकता पड़ती है, तो इस खाने का अर्थ है कि हम पेट पर व्यर्थ का बोझ डाल रहे हैं और अवसर पर बुद्धि को ही प्राथमिकता देनी चाहिए या | | शरीर की व्यवस्था को रुग्ण कर रहे हैं। और अगर इस तरह की भाव को? क्या सिर्फ भाव को प्रधानता देने से | | चीजें हम खाते ही चले जाएं, तो हम शरीर को पूरी तरह नष्ट कर आपकी बातें समझ में आ जाएंगी?
डालेंगे। तो भोजन हमारा जीवन नहीं बनेगा. मत्य बन जाएगा।
शब्द भी भोजन हैं। आप ऐसा मत सोचना कि सुन लिया। सुन
| लिया नहीं, आपके भीतर चली गई बात। अब आप इससे बच नहीं 7 श्चित ही, मेरी बात समझनी है, तो बुद्धि से समझनी | सकते। कुछ करना पड़ेगा। या तो इसे पचाना पड़ेगा और या फिर