SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 405
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साधना और समझ बनाई है; अदालत में काम लाते हैं झूठ पकड़ने के लिए। उस मशीन पर आदमी को खड़ा कर देते हैं। उससे पूछते हैं। जो बात वह सच बोलता है, तो उसके हृदय की धड़कन अलग होती है। आप भी जब सच बोलते हैं, तो धड़कन अलग होती है। जब आप झूठ बोलते हैं, तो एक धक्का लगता है। हृदय की धड़कन में फर्क हो जाता है। किसी ने आपसे पूछा, आपकी घड़ी में कितने बजे हैं? आप कहते हैं, आठ । किसी ने पूछा कि सामने जो किताब रखी है, इसका क्या नाम है? आपने पढ़कर बता दिया। आपके हृदय में कहीं कोई झटका नहीं लगता। फिर किसी ने पूछा, आपने चोरी की ? तो भीतर से तो आप कहते हैं कि की; और ऊपर से आप कहते हैं, नहीं की। तो रिदम, भीतर की लय टूट जाती है। वह लय का टूटना मशीन पकड़ लेती है कि आपके हृदय की गति में फर्क पड़ गया। ग्राफ टूट जाता है। तो उस आदमी को, अब्राहम लिंकन को, बने हुए अब्राहम लिंकन को खड़ा किया गया लाइ डिटेक्टर पर। वह भी परेशान हो गया था। जो देखे, वही समझाए कि अरे, क्यों पागल हो रहे हो ? होश में आओ। यह नाटक था। वह भी घबड़ा गया। उसने सोचा कि इससे कैसे छुटकारा हो! यह तो मनोवैज्ञानिक ने बहुत-से सवाल पूछे। फिर पूछने के बाद उसने पूछा कि 5 क्या तुम अब्राहम लिंकन हो ? तो उसने सोचा, झंझट खतम ही करो, कह दो कि नहीं हूं। तो उसने कहा कि नहीं, मैं अब्राहम लिंकन नहीं हूं। मनोवैज्ञानिक बड़ा खुश हुआ। लेकिन नीचे मशीन ने ग्राफ बताया कि यह आदमी झूठ बोल रहा है। इतना गहरा उसको खयाल चला गया है कि मैं अब्राहम लिंकन हूं। वह खुद ही मना कर रहा है। लेकिन उसका हृदय जानता है कि मैं हूं। अब क्या करिएगा! एक साल का नाटक अगर ऐसी स्थिति बना देता हो, तो आपने शरीर के साथ बहुत जन्मों में नाटक किया है। कितनी - कितनी लंबी यात्रा है शरीर के साथ एक होने की। मन के साथ कितने समय से आप अपने को एक बनाए हुए हैं। इसलिए कठिनाई है। इसलिए तोड़ने में अड़चन मालूम पड़ती है। इतना लंबा हो गया है यह सब कि आप जन्मों-जन्मों से लिंकन का पार्ट कर हैं। और अब कोई आपसे पूछता है, तो आप कितना ही कहें, मैं शरीर नहीं हूं, लेकिन भीतर... । आपको लाइ डिटेक्टर पर खड़ा करके पूछा जाए कि क्या तुम शरीर हो ? आप बड़े आत्म- ज्ञानी हैं। गीता पढ़ते हैं, कुरान पढ़ते हैं, कंठस्थ है। और आप रोज सुबह बैठकर दोहराते हैं कि मैं शरीर नहीं हूं। आप लाइ डिटेक्टर पर खड़े किए जाएं। आप कहेंगे, मैं शरीर नहीं हूं। वह डिटेक्टर कहेगा कि यह आदमी झूठ बोल रहा है। क्योंकि आपकी मान्यता तो गहरी है कि आप शरीर हैं। आप जानते हैं। आपके गहरे तक यह बात घुस गई है। इसे तोड़ने में | इसीलिए कठिनाई है। लेकिन यह तोड़ी जा सकती है, क्योंकि यह झूठ है। यह सत्य नहीं है। आप पृथक हैं ही। आप कितना ही मान लें कि मैं पृथक नहीं हूं, | आप पृथक हैं। आपके मानने से सत्य बदलता नहीं। हां, आपके मानने से आपकी जिंदगी असत्य हो जाती है। कृष्ण कहते हैं, यह जो भीतर बैठा हुआ स्वरूप है, यह सदा मौन, सदा शांत, शुद्ध, सदा आनंद से भरा है। 379 इसका हमने कभी कोई दर्शन नहीं किया है। और जो भी हम जानते हैं अपने संबंध में, वह या तो शरीर है या मन है। मन के संबंध में भी हम बहुत नहीं जानते हैं। मन की भी थोड़ी-थोड़ी सी परतें हमें पता हैं। बहुत परतें तो अचेतन में छिपी हैं, उनका हमें कोई पता नहीं है। साक्षी का अर्थ है कि मैं शरीर से भी अपने को तोडूं और मन से भी अपने को तोडूं । और जब मैं कहता हूं तोडूं, तो मेरा मतलब है, वह जो गलत जोड़ है, वही तोड़ना है। वस्तुतः तो हम जुड़े हुए नहीं हैं। इसलिए कृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन, अनादि होने से और गुणातीत होने से यह अविनाशी परमात्मा शरीर में स्थित हुआ भी वास्तव में न करता है, न लिपायमान होता है। न तो यह कुछ करता है और चाहे किसी को लगता हो कि कुछ हो भी रहा है, तो भी लिप्त नहीं होता। कमल का पत्ता जैसे पानी में भी, पानी की बूंदें पड़ जाएं उसके ऊपर, तो भी छूता भी नहीं बूंदों को। बूंदें अलग बनी रहती हैं, पत्ते पर पड़ी हुई भी । जल छूता नहीं। वैसा यह अछूता रह जाता है। | इसने कभी भी कुछ नहीं किया है। हम इसे कैसे मानें? हम तो सब चौबीस घंटे कुछ न कुछ कर रहे हैं। हम इसे कैसे मानें? हम यह कैसे स्वीकार करें कि यह भीतर | जो है, यह सदा शुद्ध है। क्योंकि हम बहुत-से पाप कर रहे हैं, चोरी | कर रहे हैं, झूठ बोल रहे हैं। यह कृष्ण की बात समझ में नहीं आती | कि हम और शुद्ध हो सकते हैं! हम, जिन्होंने इतनी बुराइयां की हैं? न भी की हों, तो इतनी बुराइयां सोची हैं, करनी चाही हैं। कितनी बार हत्या करने का मन हुआ है, चोरी करने का मन हुआ है। यह
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy