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________________ ॐ गीता दर्शन भाग-60 अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः। पूर्णता तो होगी उपलब्ध, अभी है नहीं। और यह जो अधूरा सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान् ।।११।। आदमी है, इसे तो अपने अधूरेपन से ही प्रारंभ करना होगा। ता जा श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासात् ज्ञानाख्यानं विशिष्यते। आपके पास ज्यादा हो, वैसा ही मार्ग चुनना उचित है। ध्यानात्कर्मफलत्यागः त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ।। १२ ।। और मार्ग तो सदा ही एकांगी होता है। मंजिल पूर्ण होती है। मार्ग और यदि इसको भी करने के लिए असमर्थ है, तो जीते हुए ही अगर पूर्ण हो, तो फिर मंजिल का कोई अर्थ ही न रहा। मन वाला और मेरी प्राप्तिरूप योग के शरण हुआ सब को मार्ग और मंजिल में फर्क क्या है? मार्ग और मंजिल में बड़ा फर्क के फल का मेरे लिए त्याग कर। यही है कि मार्ग तो अधूरा होगा। और इसलिए जितने लोग हैं इस क्योंकि मर्म को न जानकर किए हुए अभ्यास से परोक्ष ज्ञान जगत में, उतने मार्ग होंगे। हर आदमी अपनी जगह से चलेगा; और श्रेष्ठ है और परोक्ष ज्ञान से मुझ परमेश्वर के स्वरूप का हर आदमी वहीं से शुरू करेगा, जहां है और जो है। पहुंचना है ध्यान श्रेष्ठ है तथा ध्यान से भी सब कमों के फल का मेरे | | वहां, जहां व्यक्ति समाप्त हो जाता है, और जहां अव्यक्ति, लिए त्याग करना श्रेष्ठ है। और त्याग से तत्काल ही परम निराकार, पूर्ण उपलब्ध होता है। शांति होती है। सभी नदियां यात्रा करती हैं सागर की तरफ। सागर कोई यात्रा नहीं करता। कोई नदी पूरब से चलती है, कोई पश्चिम से चलती है। कोई दक्षिण की तरफ बहती है; कोई उत्तर की तरफ बहती है। पहले कुछ प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है, बुद्धि और भाव | नदियों के रास्ते होंगे। और नदियों को रास्ते पकड़ने ही पड़ेंगे। अगर का विकास क्या साथ-साथ संभव नहीं है? स्वस्थ नदी यह सोचे कि सागर का तो कोई आयाम, कोई दिशा नहीं है, व्यक्ति क्या ध्यान और भक्ति एक साथ नहीं कर इसलिए मैं भी कोई आयाम और दिशा न पकडूं, तो फिर सागर तक सकता? व्यक्ति तो पूरा है-बुद्धि भी, भाव भी, कर्म न पहुंच पाएगी। सागर तक पहुंचने के लिए रास्ता पकड़ना होगा। भी-तो फिर साधना का मार्ग एकांगी क्यों होना | हम जहां खड़े हैं, वहां से सागर दूर है।। चाहिए? तो ज्यादा विचारणीय यह नहीं है कि पूर्ण पुरुष क्या है; ज्यादा | विचारणीय यह है कि अपूर्ण पुरुष आप कैसे हैं। और अपने को समझकर यात्रा पर निकलना होगा। अगर आप पैदल चल सकते हैं, का क्ति तो पूरा है, लेकिन वह व्यक्ति है आदर्श। वह तो ठीक; बैलगाड़ी से चल सकते हैं, तो ठीक; घोड़े की सवारी कर प्प आप नहीं हैं, जो पूरे हैं। जब व्यक्ति अपनी पूर्णता को | सकते हैं, तो ठीक; हवाई जहाज से यात्रा कर सकते हैं, तो ठीक। प्रकट होता है, उपलब्ध होता है, तब उसमें सभी बातें __ आप क्या साधन चुनते हैं, वह आपकी सामर्थ्य पर निर्भर है। पूरी हो जाती हैं। उसकी बुद्धि भी उतनी ही प्रखर होती है, जितना | और साधन महत्वपूर्ण है। और साधन एकांगी होगा। क्योंकि जो उसका भाव। उसका कर्म, उसकी बुद्धि, उसका हृदय, सभी मिल आपका साधन है, वह दूसरे का नहीं होगा; उसमें फर्क होंगे। जाते हैं, त्रिवेणी बन जाते हैं। एक भक्त है। अब जैसे मीरा है। मीरा को बुद्ध का मार्ग समझ में लेकिन यह है अंतिम लक्ष्य। आप अभी ऐसे हैं नहीं। और यात्रा नहीं आ सकता। मीरा को-मीरा के पास है हृदय एक स्त्री का, एक करनी है आपको। तो आप तो जिस तरफ ज्यादा झुके हैं, जिस प्रेमपूर्ण हृदय-इस प्रेमपूर्ण हृदय को यह तो समझ में आ सकता है आयाम में आपकी रुचि, रुझान ज्यादा है, उससे ही यात्रा कर सकेंगे। कि परमात्मा से अपने को भर ले; परमात्मा को अपने में विराजमान और आप अभी खंड-खंड हैं, अधूरे हैं। कोई है, जिसके पास | कर ले; परमात्मा के लिए अपने द्वार-दरवाजे खुले छोड़ दे और उसे भाव ज्यादा है और बुद्धि कम है। कोई है, जिसके पास कर्म की प्रवेश कर जाने दे। मीरा को बुद्ध की बात समझ में नहीं आ सकती कुशलता है और कर्म का लगाव है, न बुद्धि है, न भाव है; या कि अपने को सब भांति खाली और शून्य कर लिया जाए। तुलना में कम है। और कोई है कि बुद्धि गहन है, भाव कोरा है, | | थोड़ा समझें। पुरुष को आसान है समझ में आना कि अपने को कर्म की वृत्ति नहीं है। ऐसे हम अधूरे-अधूरे हैं। | खाली कर लो। स्त्री को सदा आसान है समझ में आना कि अपने 86
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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