________________
स्वयं को बदलो
वाला मौजूद है, तब तक हमारे शक को भी हवा मिलती है। अब मुसलमान कहता है कि हम नहीं मानते, तुम्हारी गीता में कुछ सार है; तो हमें खुद ही डर पैदा होता है कि कहीं यह ठीक नहीं है। इससे हम पहले इसको राजी करने को उत्सुक हो जाते हैं।
ध्यान रहे, जब भी आदमी किसी दूसरे को राजी करने में बहुत श्रम उठाता है, तो उसका मतलब यह है कि वह खुद संदिग्ध है। वह जब तक सबको राजी न कर लेगा, तब तक उसका खुद भी मन राजी नहीं है। वह खुद भी डरा हुआ है कि बात पक्की है या नहीं ! क्योंकि इतने लोग शक करते हैं।
बीस करोड़ हिंदू हैं, तो कोई अस्सी करोड़ मुसलमान हैं। तो बीस करोड़ हिंदू जिसको मानते हैं, अस्सी करोड़ मुसलमान तो इनकार करते हैं। कोई एक अरब ईसाई हैं, वे इनकार करते हैं। कोई अस्सी करोड़ बौद्ध हैं, वे इनकार करते हैं। तो सारी दुनिया तो इनकार करती है बीस करोड़ हिंदुओं को छोड़कर !
तो शक पैदा होता है कि यह गीता अगर सच में परम ब्रह्म का वचन होता, तो साढ़े तीन, चार अरब आदमी सभी स्वीकार करते। दो-चार न करते, तो हम समझ लेते कि दिमाग फिरा है। यहां तो हालत उलटी है। दो-चार स्वीकार करते हैं, बाकी तो स्वीकार नहीं कर रहे हैं। तो भीतर संदेह पैदा होता है। उस संदेह से ऐसे सवाल उठते हैं।
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, कौन स्वीकार करता है या कौन स्वीकार नहीं करता। तुम्हारी जिंदगी बदल जाए, तो बात सत्य है। तुम कृष्ण की बात मानकर अपनी जिंदगी को बदल लो। तुम अकेले काफी हो। कोई पूरी दुनिया में स्वीकार न करे, लेकिन तुम अकेले अगर अपनी जिंदगी में स्वर्ण ले आते हो और कचरा जल जाता है, तो कृष्ण की बात सही है। सारी दुनिया इनकार करती रहे, तो भी कोई अंतर नहीं पड़ता।
लेकिन खुद तो हम कोई परिवर्तन लाना नहीं चाहते; हम सब दूसरे को कनवर्ट करने में लगे हैं। हम जैसे अजीब लोग खोजने मुश्किल हैं। हमारी हालत ऐसी है कि जैसे घर में हमारे कुआं हो, जिसमें अमृत भरा हो। हम तो उसको कभी नहीं पीते, हम पड़ोसियों को समझाते हैं कि आओ, हमारे पास अमृत का कुआं है, उसको पीओ और पड़ोसी भी उसको कैसे माने, क्योंकि हमने खुद ही अमृत का कोई स्वाद नहीं लिया है।
अगर आपके घर में अमृत का कुआं होता, तो पहले आप पीते, फिर दूसरे की फिक्र करने जाते। और सच तो यह है कि अगर अमृत
आपने पी लिया होता और आप अमर हो गए होते और मृत्यु आपके | जीवन से मिट गई होती, तो किसी को समझाने जाने की जरूरत नहीं थी। पड़ोसी खुद ही पूछने आता कि मामला क्या है! तुम ऐसे अमृत आनंद को उपलब्ध कैसे हो गए? क्या पीते हो ? क्या खाते हो ? क्या राज है तुम्हारा? तुम्हें पड़ोसी के पास कहने की जरूरत न होती।
तुम्हें जरूरत इसलिए पड़ती है कि तुम्हारे कुएं पर तुम्हें खुद ही भरोसा नहीं है। तुमने खुद ही कभी उसका पानी पीकर नहीं देखा । तुम पहले पड़ोसी को पिलाने की कोशिश में लगे हो । शायद तुम्हें डर है कि पता नहीं जहर है या अमृत। पहले पड़ोसी पर देख लें परिणाम क्या होता है, फिर अपना सोचेंगे।
क्या फिक्र है तुम्हें? अपने शास्त्र को दूसरों पर लादने की चिंता क्यों है? अपने को बदलो। तुम्हारी बदलाहट दूसरों को दिखाई | पड़ेगी और उन्हें लगेगा कि कुछ सार है, तो वे भी तुम्हारे शास्त्र में से शायद कुछ ले लें। लेकिन लें या न लें, इसे लक्ष्य बनाना उचित नहीं है।
सभी लोग ऐसा सोचते हैं। मेरे पास बहुत लोग आते हैं, वे कहते | हैं कि गीता इतना महान ग्रंथ है, मुसलमान क्यों नहीं मानता ? ईसाई क्यों नहीं मानता ?
महान ग्रंथ उनके पास हैं। और गीता से इंचभर कम महान नहीं हैं। लेकिन महान ग्रंथ से तुमको भी मतलब नहीं है, उनको भी मतलब है।
279
तुम जब गीता को महान कहते हो, तो तुम यह मत सोचना कि तुम्हें पता है कि गीता महान है। गीता को तुम महान सिर्फ इसलिए कहते हो कि गीता तुम्हारी है। और गीता को महान कहने से तुम्हारे अहंकार को रस आता है। गीता महान है, इसके पीछे यह छिपा है कि मैं महान हूं, क्योंकि मैं गीता को मानने वाला हूं।
कुरान महान है, तो मुसलमान सोचता है, मैं महान हूं। बाइबिल महान है, तो ईसाई सोचता है, मैं महान हूं।
अगर कोई कह दे, गीता महान नहीं है, तो तुम्हें चोट लगती है। वह इसलिए नहीं कि तुम्हें गीता का पता है । वह चोट इसलिए लगती है कि तुम्हारे अहंकार को चोट लगती है।
हमारे अहंकार के बड़े जाल हैं। हम कहते हैं, भारत महान देश है। भारत-वारत से किसी को लेना-देना नहीं है। कि चीन महान | देश है। मतलब हमें अपने से है। भारत इसलिए महान देश है, | क्योंकि आप जैसा महान व्यक्ति भारत में पैदा हुआ। और कोई