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गीता दर्शन भाग-60
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।। भी झुक जाना चाहिए। विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ।। २७ ।। मनुष्य का होना ही संत्रस्त है। मनुष्य जिस ढंग का है, उसमें ही
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् । पीड़ा है। मनुष्य का अस्तित्व ही दुखपूर्ण है। इसलिए असली तो न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ।। २८।। नासमझ वह है, जो सोचता है कि बिना अध्यात्म की ओर झुके हुए प्रकृत्यवच कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः।
| आनंद को उपलब्ध हो जाएगा। आनंद पाने का कोई उपाय और है यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ।। २९ ।। ही नहीं। और जो जितनी जल्दी झुक जाए, उतना हितकर है। यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
यह बात सच है कि जो लोग अध्यात्म की ओर झुकते हैं, वे तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ।।३०।। मानसिक रूप से पीड़ित और परेशान हैं। लेकिन दूसरी बात भी इस प्रकार जानकर जो पुरुष नष्ट होते हुए सब चराचर खयाल में ले लेना, झुकते ही उनकी मानसिक पीड़ा समाप्त होनी भूतों में नाशरहित परमेश्वर को समभाव से स्थित देखता शरू हो जाती है। झकते ही मानसिक उन्माद समाप्त हो जाता है। है, वहीं देखता है।
और अध्यात्म की प्रक्रिया से गुजरकर वे स्वस्थ, शांत और . क्योंकि वह पुरुष सब में समभाव से स्थित हुए परमेश्वर आनंदित हो जाते हैं। को समान देखता हुआ, अपने द्वारा आपको नष्ट नहीं देखें बुद्ध की तरफ, देखें महावीर की तरफ, देखें कृष्ण की
करता है, इससे वह परम गति को प्राप्त होता है। तरफ। उस आग से गुजरकर सोना निखर आता है। लेकिन जो और जो पुरुष संपूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति से ही झुकते ही नहीं, वे पागल ही बने रह जाते हैं। किए हुए देखता है तथा आत्मा को अकर्ता देखता है, आप ऐसा मत सोचना कि अध्यात्म की तरफ नहीं झुक रहे हैं, वही देखता है।
तो आप स्वस्थ हैं। अध्यात्म से गुजरे बिना तो कोई स्वस्थ हो ही और यह पुरुष जिस काल में भूतों के न्यारे-न्यारे भाव को नहीं सकता। स्वास्थ्य का अर्थ ही होता है, स्वयं में स्थित हो जाना। एक परमात्मा के संकल्प के आधार स्थित देखता है तथा उस स्वयं में स्थित हुए बिना तो कोई स्वस्थ हो ही नहीं सकता। तब तक परमात्मा के संकल्प से ही संपूर्ण भूतों का विस्तार देखता है, तो दौड़ और परेशानी और चिंता और तनाव बना ही रहेगा। उस काल में सच्चिदानंदघन ब्रह्म को प्राप्त होता है। तो जो झुकते हैं, वे तो पागल हैं। जो नहीं झुकते हैं, वे और भी
ज्यादा पागल हैं। क्योंकि झुके बिना पागलपन से छूटने का कोई
उपाय नहीं है। इसलिए यह मत सोचना कि आप बहुत समझदार पहले कुछ प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है कि प्रायः लोग हैं। क्योंकि आपकी समझदारी का कोई मूल्य नहीं है। अगर भीतर ऐसा सोचते हैं कि योग या अध्यात्म की ओर वे ही | चिंता है, पीड़ा है, दुख है, तो आप कितना ही जानते हों, कितनी झुकते हैं, जो मस्तिष्क के विकार से ग्रस्त हैं, भावुक ही समझदारी हो, वह कुछ काम न आएगी। आपके भीतर हैं या जीवन की कठिनाइयों से संत्रस्त हैं। प्रायः पागलपन तो इकट्ठा हो ही रहा है। पागलपन या उन्माद को साधना का प्रस्थान बिंदु मान और मैंने कहा कि आदमी का होना ही पागलपन है। उसके लिया जाता है!
कारण हैं। क्योंकि आदमी सिर्फ बीज है, सिर्फ एक संभावना है कुछ होने की। और जब तक वह हो न जाए, तब तक परेशानी
रहेगी। जब तक उसके भीतर का फूल पूरा खिल न जाए, तब तक । ऐसा सोचते हैं, वे थोड़ी दूर तक ठीक ही सोचते हैं। | बीज के प्राण तनाव से भरे रहेंगे। बीज टूटे, अंकुरित हो और फूल OII भूल उनकी यह नहीं है कि जो लोग मन से पीड़ित और बन जाए, तो ही आनंद होगा।
परेशान हैं, वे ही लोग ध्यान, योग और अध्यात्म की | । दुख का एक ही अर्थ है आध्यात्मिक भाषा में, कि आप जो हैं, ओर झुकते हैं; यह तो ठीक है। लेकिन जो अपने को सोचते हैं कि वह नहीं हो पा रहे हैं। और आनंद का एक ही अर्थ है कि आप जो मानसिक रूप से पीड़ित नहीं हैं, वे भी उतने ही पीड़ित हैं और उन्हें हो सकते हैं, वह हो गए हैं। आनंद का अर्थ है कि अब आपके
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