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गीता दर्शन भाग-6
इसलिए मनसविद कहते हैं कि आप जब दूसरे के दुख में दुख बताते हैं, तो भीतर आपको सुख होता है। यह बड़ी जटिल है बात और हमें लगता है कि उलटी मालूम पड़ती है। हमको लगता है, यह बात ठीक नहीं है। क्योंकि जब किसी का घर जल जाता है, हम सच में ही दुखी होते हैं, ऐसा हमें लगता है।
लेकिन मनोवैज्ञानिक कहते हैं, आपके गहरे में थोड़ा-सा सुख होता है। और वह सुख कि अपना घर नहीं जला, एक। इसका जल गया। और जलना ही था, पाप की कमाई थी। यह सब भीतर है। और काफी इतरा रहे थे, रास्ते पर आ गए। देर है उसके न्याय में, अंधेर नहीं है। यह सब भीतर चल रहा है। और ऊपर से सहानुभूति बता रहे हैं। और उस सहानुभूति में भी एक तरह का सुख है कि आज इस हालत में आ गए कि सहानुभूति हम दिखा रहे हैं। भगवान न करे कि कभी हम इस हालत में हों कि कोई हमें सहानुभूति दिखाए।
आपको पता है, जब कोई आपको सहानुभूति दिखाने आता है, तो अच्छा नहीं लगता। खटकता है कि अच्छा, कोई बात नहीं । किस्मत की बात है! कभी मौका आएगा, तो हम भी सहानुभूति बताने आएंगे। ऐसा सदा हमारे यहां थोड़ा ही होता रहेगा ! सब के घर होगा ।
लेकिन जब आपको कोई सहानुभूति बताता है, तो सच में आपको अच्छा लगता है? अगर आपको अच्छा नहीं लगता, तो निश्चित ही जो बता रहा है, उसको अच्छा लग रहा होगा। उसके अच्छे लगने की वजह से ही आपको भी अच्छा नहीं लग रहा है। और आपको अच्छा न लगने की वजह से उसको भी अच्छा लग रहा है। सब जुड़ा है।
दूसरे की खुशी में आप खुश नहीं होते। दूसरे के दुख में भी आपका दुख झूठा है। तभी आपका दुख सच्चा हो सकता है दूसरे के दुख में, जब दूसरे की खुशी में आपकी खुशी सच्ची हो । और दूसरे की खुशी में आपको खुशी तभी हो सकती है, जब आप इतने मिट गए हों कि दूसरा दूसरा मालूम न पड़े। नहीं तो नहीं मालूम हो | सकती। जब तक मैं हूं, तब तक दूसरे की खुशी में मुझे कैसे खुशी मालूम होगी? उसको मिल गई और मुझे नहीं मिली !
राजनीति में भी दो आदमी चुनाव लड़ते हैं, तो हारा हुआ जाता है जीते वाले को धन्यवाद देने, शुभकामना करने। लेकिन उस शुभकामना में कितना अर्थ होगा ! और शुभकामना में कितनी पीड़ा होगी! लेकिन खेल के नियम हैं, वे भी पूरे करने पड़ते हैं। इससे ऊपर-ऊपर सब व्यवस्था बनी रहती है। भीतर-भीतर जहर चलता
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रहता है, ऊपर-ऊपर व्यवस्था बनी रहती है। ऊपर-ऊपर मुस्कुराहटें लगी रहती हैं, भीतर-भीतर कांटे सरकते रहते हैं और छुरी चलती रहती है।
दूसरा जब तक दूसरा है, तब तक आप उसके दुख में दुखी नहीं हो सकते। दूसरा जब तक दूसरा है, उसके सुख में सुखी नहीं हो सकते। और दूसरा जब दूसरा ही नहीं होगा...। कब नहीं होगा? जब आप नहीं होंगे भीतर, वह भीतर की अस्मिता, अहंकार नहीं होगा।
लेकिन बड़ी जटिलता है। जब अहंकार ही नहीं होता, तो अपने सुख में भी सुख नहीं होता, अपने दुख में भी दुख नहीं होता। और जो व्यक्ति अहंकारशून्य हो जाता है, वह हर्ष - विषाद के परे हो जाता है— न अपना, न दूसरे का ।
लेकिन यह थोड़ा सोचने जैसा है कि बुद्ध जैसा व्यक्ति भी तो दूसरों का दुख दूर करने की कोशिश करता है!.
जापान में एक फकीर हुआ नान-इन । उससे किसी ने पूछा कि बुद्ध सब दुखों के पार हो गए, लेकिन क्या उन्हें दूसरे का दुख अभी भी छूता है? यह बड़ा विचारणीय है। क्योंकि वे दूसरे के दुख को दूर करने की कोशिश में तो लगे हैं।
तो नान-इन ने कहा है, दूसरे का दुख नहीं छूता । दूसरे का दुखस्वप्न दिखाई पड़ता है, नाइटमेयर ।
जैसे कि मैं जाग जाऊं रात । अपना सपना समाप्त हो गया, मैं जाग गया। और आपको मैं देखता हूं पड़ोस में ही, आपके मुंह से फसूकर गिर रहा है, और छाती जोर से धड़क रही है, और आप कंप रहे हैं, और आंख से आंसू बह रहे हैं, और लगता है कि कोई | आपकी छाती पर चढ़ा है, कोई आपको सता रहा है। इससे मैं दुखी नहीं होता। मैं हंस सकता क्योंकि यह सपना है। लेकिन यह सपना मुझे है । आपको असलियत है अभी। और आप पूरी तकलीफ पा रहे हैं। और मैं आपको जगाने की कोशिश भी कर सकता हूं।
इस जगाने का मतलब यह नहीं है कि मैं आपके दुख से दुखी हो रहा हूं। इस जगाने का कुल मतलब इतना ही है कि मैं जानता हूं कि तुम नाहक ही परेशान हो रहे हो, और तुम्हारी परेशानी झूठी है। लेकिन तुम्हारे लिए अभी सच्ची है। क्योंकि तुम सो रहे हो। और तुम जाग जाओ, तो तुम्हारे लिए भी झूठी हो जाएगी।
तो बुद्ध की जो चेष्टा है, या कृष्ण की जो चेष्टा है, वह आपका दुख दूर करने की नहीं है। दुखी तो आप हैं नहीं। लेकिन दुखस्वप्न दूर करने का है।