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गीता दर्शन भाग-6
अप्रीति का सवाल भी नहीं है। जो बनाता है, वही मिटाएगा भी । नहीं तो मिटाएगा कौन?
और अगर मिटने की क्रिया न हो, तो बनने की क्रिया बंद हो जाएगी। अगर जगत में मृत्यु बंद हो जाए, तो जन्म बंद हो जाएगा। . आप यह मत सोचें कि जन्म जारी रहेगा और मृत्यु बंद हो सकती है। उधर मृत्यु बंद होगी, इधर जन्म बंद होगा। और अनुपात निरंतर वही रहेगा। उधर मृत्यु को रोकिएगा, इधर जन्म रुकना शुरू हो जाएगा।
इधर चिकित्सकों ने, चिकित्साशास्त्र ने मृत्यु को थोड़ा दूर हटा दिया है, बीमारी थोड़ी कम कर दी है, तो सारी दुनिया की सरकारें संतति-निरोध में लगी हैं। वह लगना ही पड़ेगा। उसका कोई उपाय ही नहीं है। और अगर सरकारें संतति-निरोध नहीं करेंगी, तो अकाल करेगा, भुखमरी करेगी, बीमारी करेगी। लेकिन जन्म और मृत्यु में एक अनुपात है। उधर आप मृत्यु को रोकिए, तो इधर जन्म को रोकना पड़ेगा।
अब इधर हिंदुस्तान में बहुत-से साधु-संन्यासी हैं, वे कहते हैं, संतति-निरोध नहीं होना चाहिए। उनको यह भी कहना चाहिए कि अस्पताल नहीं होने चाहिए। अस्पताल न हों, तो संतति-निरोध की कोई जरूरत नहीं है। इधर मौत रोकने में सब राजी हैं कि रुकनी चाहिए। संत-महात्मा लोगों को समझाते हैं, अस्पताल खोलो; मौत को रोको। मौत को हटाओ; बीमारी कम करो। और वही संत-महात्मा लोगों को समझाते हैं कि बर्थ कंट्रोल मत करना । इससे तो बड़ा खतरा हो जाएगा। यह परमात्मा के खिलाफ है।
अगर बर्थ कंट्रोल परमात्मा के खिलाफ है, तो दवाई भी परमात्मा के खिलाफ है। क्योंकि परमात्मा बीमारी दे रहा है और तुम दवा कर रहे हो! परमात्मा मौत ला रहा है और तुम इलाज करवा रहे हो! तब सब चिकित्सा परमात्मा के विरोध में है। चिकित्सा बंद कर दो, संतति-निरोध की कोई जरूरत ही नहीं रहेगी। लोग अपने आप ही ठीक अनुपात में आ जाएंगे। इधर मौत रोकी, इधर जन्म रुकता है।
आप सोच लें, अगर किसी दिन विज्ञान ने यह तरकीब खोज निकाली कि आदमी को मरने की जरूरत नहीं, तो हमें सभी लोगों को बांझ कर देना पड़ेगा, क्योंकि फिर पैदा होने की कोई जरूरत नहीं ।
जन्म और मृत्यु एक ही धागे के दो छोर हैं। उनमें एक संतुलन है। यह सूत्र पहली बात यह कर रहा है कि परमात्मा दोनों अतियों का जोड़ है। सब भूतों के बाहर-भीतर परिपूर्ण है।
बहुत लोग हैं, जो मानते हैं, परमात्मा बाहर है। आम आदमी की धारणा यही होती है कि कहीं आकाश में परमात्मा बैठा है। एक बहुत बड़ी दाढ़ी वाला बूढ़ा आदमी, वह सारी दुनिया को सम्हाल रहा है सिंहासन पर बैठा हुआ ! इससे बड़ा खतरा भी होता है कभी-कभी ।
पश्चिम के बहुत बड़े विचारक कार्ल गुस्ताव जुंग ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि जब मुझे बचपन में यह समझाया गया कि परमात्मा आकाश में बैठा हुआ है अपने सिंहासन पर और दुनिया का काम कर रहा है, तो उसने लिखा है कि मैं अपने बाप से कह तो नहीं सका, लेकिन मुझे सदा एक ही खयाल आता था कि वह अगर पेशाब, मल-मूत्र त्याग करता होगा, तो वह सब हम ही पर. गिरता होगा । आखिर वह सिंहासन पर बैठा-बैठा कब तक बैठा रहता होगा; कभी तो मल-मूत्र त्याग करता होगा !
उसने अपने संस्मरण में लिखा है कि यह बात मेरे मन में बुरी तरह घूमने लगी। छोटा बच्चा ही था। किसी से कह तो सकता नहीं, | क्योंकि किसी से कहूं तो वह पिटाई कर देगा कि यह भी क्या बात कर रहे हो, परमात्मा और मल-मूत्र ! लेकिन जब परमात्मा सिंहासन पर बैठता है आदमियों की तरह, जैसे आदमी कुर्सियों पर बैठते हैं; और जब परमात्मा की दाढ़ी-मूंछ और सब आदमी की तरह है, तो फिर मल-मूत्र भी होना ही चाहिए। किसी से, जुंग ने लिखा है, मैं कह तो नहीं सका, तो फिर मुझे सपना आने लगा। कि वह बैठा है अधर में और मल-मूत्र गिर रहा है !
आम आदमी की धारणा यही है कि वह कहीं आकाश में बैठा हुआ है— बाहर। इसलिए आप मंदिर जाते हैं, क्योंकि परमात्मा बाहर है। यह एक अति है।
एक दूसरी अति है, जो मानते हैं कि परमात्मा भीतर है; बाहर का कोई सवाल नहीं। इसलिए न कोई मंदिर, न कोई तीर्थ; न बाहर कोई जाने की जरूरत । परमात्मा भीतर है।
यह सूत्र कहता है कि दोनों बातें अधूरी हैं। जो कहते हैं, परमात्मा भीतर है, वे भी आधी बात कहते हैं । और जो कहते हैं, परमात्मा बाहर है, वे भी आधी बात कहते हैं। और दोनों गलत हैं, क्योंकि अधूरा सत्य असत्य से भी बदतर होता है। क्योंकि वह सत्य जैसा भासता है और सत्य नहीं होता । परमात्मा बाहर और भीतर दोनों में है।
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वह परमात्मा चराचर सब भूतों के बाहर-भीतर परिपूर्ण है। क्योंकि बाहर-भीतर उसके ही दो खंड हैं। हमारे लिए जो बाहर