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® स्वयं को बदलो ®
है और हमारे लिए जो भीतर है, वह उसके लिए न तो बाहर है, न | नहीं सकता। परमात्मा तो बहुत दूर है, नमक का स्वाद भी नहीं भीतर है। दोनों में वही है।
समझा सकता। और अगर आपने कभी नमक नहीं चखा है, तो मैं ऐसा समझें कि आपके कमरे के भीतर आकाश है और कमरे के लाख सिर पटकू और सारे शास्त्र इकट्ठे कर लूं और दुनियाभर के बाहर भी आकाश है। आकाश बाहर है या भीतर? आपका मकान | विज्ञान की चर्चा आपसे करूं, तो भी आखिर में आप पूछेगे कि ही आकाश में बना है, तो आकाश आपके मकान के भीतर भी है | | आपकी बातें तो सब समझ में आईं, लेकिन यह नमकीन क्या है? और बाहर भी है। दीवालों की वजह से बाहर-भीतर का फासला | | उसका उपाय एक ही है कि एक नमक का टकडा आपकी जीभ पैदा हो रहा है। यह शरीर की दीवाल की वजह से बाहर-भीतर का | पर रखा जाए। शास्त्र-वास्त्र की कोई जरूरत नहीं है। जो समझ में फासला पैदा हो रहा है। वैसे बाहर-भीतर वह दोनों नहीं है; या | आने वाला नहीं है, वह भी अनुभव में आने वाला हो जाएगा। और दोनों है।
| आप कहेंगे कि आ गया अनुभव में स्वाद। सूत्र कहता है, बाहर भीतर दोनों है परमात्मा। चर-अचर रूप परमात्मा का स्वाद आ सकता है। इसलिए कोई प्रत्यय के ढंग भी वही है।
से, कंसेप्ट की तरह समझाए, कोई सार नहीं होता। इसीलिए तो हम चर-अचर रूप भी वही है। जो बदलता है, वह भी वही है; जो परमात्मा के लिए कोई स्कूल नहीं खोल पाते, कोई पाठशाला नहीं नहीं बदलता, वह भी वही है।
बना पाते। या बनाते हैं तो उससे कोई सार नहीं होता। यहां भी हम इसी तरह का द्वंद्व खड़ा करते हैं कि परमात्मा कभी कितनी ही धर्म की शिक्षा दो, कोई धर्म नहीं होता। सीख-साख नहीं बदलता और संसार सदा बदलता रहता है। लेकिन बदलाहट | | कर आदमी वैसे का ही वैसा कोरा लौट जाता है। और कई दफे तो में भी वही है और गैर-बदलाहट में भी वही है। दोनों द्वंद्व को वह | | और भी ज्यादा चालाक होकर लौट जाता है, जितना वह पहले नहीं घेरे हुए है।
था। क्योंकि अब वह बातें बनाने लगता है। अब वह अच्छी बातें सूक्ष्म होने से अविज्ञेय है, जानने में आने वाला नहीं है। | करने लगता है। वह धर्म की चर्चा करने लगता है। और स्वाद उसे बहुत सूक्ष्म है। सूक्ष्मता दो तरह की है। एक तो कोई चीज बहुत | | बिलकुल नहीं है। सूक्ष्म हो, तो समझ में नहीं आती। या कोई चीज बहुत विराट हो, | कृष्ण कहते हैं, सूक्ष्म होने से अविज्ञेय है, समझ में आने वाला तो समझ में नहीं आती। न तो यह अनंत विस्तार समझ में आता है | | नहीं है। अति समीप है और अति दूर भी है। और न सूक्ष्म समझ में आता है। दो चीजें छूट जाती हैं। ___ पास है बहुत; इतना पास, जितना कि आप भी अपने पास नहीं
दो छोर हैं, विराट और सूक्ष्म। सूक्ष्म को कहना चाहिए, शून्य हैं। असल में पास कहना ठीक ही नहीं है, क्योंकि आप ही वही हैं। जैसा सूक्ष्म। एक से भी नीचे, जहां शून्य है। दो तरह के शून्य हैं। | | और दूर इतना है, जितने दूर की हम कल्पना कर सकें। अगर संसार एक से भी नीचे उतर जाएं, तो एक शून्य है। और अनंत का एक | | की कोई भी सीमा हो, विश्व की, तो उस सीमा से भी आगे। कोई शून्य है। ये दोनों समझ में नहीं आते। परमात्मा दोनों अर्थों में सूक्ष्म | | सीमा है नहीं, इसलिए अति दूर और अति निकट। ये दो अतियां है। विराट के अर्थों में भी, शून्य के अर्थों में भी। और इसलिए हैं, जिन्हें जोड़ने की कृष्ण कोशिश कर रहे हैं। अविज्ञेय है। समझ में आने जैसा नहीं है।
विभागरहित, उसका कोई विभाजन नहीं हो सकता। और सभी पर यह तो बड़ी कठिन बात हो गई। अगर परमात्मा समझ में आने विभागों में वही मौजूद है। तथा वह जानने योग्य परमात्मा भूतों का जैसा ही नहीं है, तो समझाने की इतनी कोशिश! सारे शास्त्र, सारे धारण-पोषण करने वाला और संहार करने वाला और उत्पन्न करने ऋषि एक ही काम में लगे हैं कि परमात्मा को समझाओ। और वह वाला, सभी वही है। समझ में आने योग्य नहीं है। फिर यह समझाने से क्या सार होगा! | वही बनाता है, वही सम्हालता है, वही मिटाता है। यह धारणा
समझ में आने योग्य नहीं है, इसका यह मतलब आप मत | | बड़ी अदभुत है। और एक बार यह खयाल में आ जाए, वही बनाता समझना कि वह अनुभव में आने योग्य नहीं है। समझ में तो नहीं | | है, वही सम्हालता है, वही मिटाता है, तो हमारी सारी चिंता समाप्त आएगा, लेकिन अनुभव में आ सकता है।
| हो जाती है। जैसे अगर मैं आपको समझाने बैलूं नमक का स्वाद, तो समझा। यह एक सूत्र आपको निश्चित कर देने के लिए काफी है। यह
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