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________________ गीता दर्शन भाग-60 भरोसा आ जाता है कि अकेले नहीं हैं। उनके अहंकार का खतरा हो सकता है। तो इस्लाम ने वह दरवाजा तो निराकार का रास्ता तो बिलकुल अकेला है। न पत्नी साथी | बंद कर दिया। होगी, न मित्र साथी होगा, न पति। निराकार की जो ठीक साधना | भारत ने वह दरवाजा बंद नहीं किया। क्योंकि भारत की आकांक्षा है, उसमें तो गरु भी साथी नहीं होगा। उसमें गरु भी कह देगा कि यह रही कि कोई भी दरवाजा बंद न हो, चाहे एक एक दरवाजे से हजारों मैं सिर्फ रास्ता बताता हूं, चलना तुझे है। मैं तेरे साथ नहीं आ सकता वर्ष में एक भी आदमी क्यों न निकलता हो। लेकिन दरवाजा खुला हूं। निराकार की आत्यंतिक साधना में तो गुरु कहेगा, तू मुझे छोड़, | रहना चाहिए। एक आदमी को भी बाधा नहीं होनी चाहिए। तभी तेरी यात्रा शुरू होगी। कहेगा कि मुझे पकड़ मत; कहेगा कि | निराकार के मार्ग से हजारों साल में एकाध आदमी निकलता है। गुरु की कोई जरूरत नहीं है; क्योंकि अकेले होने की ही साधना है। | लेकिन दरवाजा खुला रखा जाता है। क्योंकि वह जो निराकार के गुरु का होना भी बाधा है। मार्ग से निकलता है, वह भक्ति के मार्ग से निकल ही न सकेगा। इसलिए यह सूत्र कहता है, कृष्ण कहते हैं, अति कठिन है। । उसका कोई उपाय ही नहीं है। वह उसी मार्ग से निकल सकेगा। पहली बात कि अकेला हो जाना होगा। दूसरी बात, अगर बुद्ध को भक्ति के मार्ग से नहीं निकाला जा सकता। महावीर को परमात्मा की तरफ समर्पण न हो, तो उस अकेलेपन में अहंकार के भक्ति के मार्ग से नहीं निकाला जा सकता। कोई उपाय नहीं है। वह उठने की बहुत गुंजाइश है। बहुत ऐसा हो सकता है कि मैं हूं। यह | उनका स्वभाव नहीं है। मैं की अकड़ बहुत तीव्र हो सकती है, क्योंकि इसको मिटाने के | मीरा को निराकार के मार्ग से नहीं निकाला जा सकता; वह लिए कोई भी नहीं है। उसका स्वभाव नहीं है। सब मार्ग खुले और साफ होने चाहिए। निराकार और मेरा अहंकार. अगर कहीं ये दोनों मिल जाएं तो। पर मार्ग कठिन है, क्योंकि अहंकार के उठने का डर है। खतरा है, बड़े से बड़ा खतरा है। क्योंकि अगर मैं कहूं कि मैं ब्रह्म देह-अभिमान मजबूत हो सकता है। खतरा है। हूं, तो इसमें दोनों संभावनाएं हैं। इसका एक मतलब तो यह होता। इसलिए कृष्ण कहते हैं, पहुंच तो जाते हैं मुझ तक ही वे लोग है कि अब मैं नहीं रहा, ब्रह्म ही है; तब तो ठीक है। और अगर | भी, जो निराकार से चलते हैं। लेकिन वह स्थिति कठिन है। और इसका यह मतलब हो कि मैं ही हूं, अब कोई ब्रह्म वगैरह नहीं है; | जो मेरे परायण हुए भक्तजन संपूर्ण कर्मों को मेरे में अर्पण करके तो बड़ा खतरा है। | मुझ सगुणरूप परमेश्वर को ही अनन्य भक्ति-योग से निरंतर इस्लाम ने इस तरह की बात को बिलकुल बंद ही करवा दिया, | | चिंतन करते भजते हैं, उनका मैं शीघ्र उद्धार करता हूं। ताकि कोई खतरा न हो। तो जब अल-हिल्लाज ने कहा कि अहं | भक्त के लिए एक सुविधा है। वह पहले चरण पर ही मिट ब्रह्मास्मि-अनलहक-मैं ही हूं ब्रह्म, तो इस्लाम ने हत्या कर दी। | सकता है। यह उसकी सुविधा है। ज्ञानी की असुविधा है, आखिरी हत्या करनी उचित नहीं है। लेकिन अभी मैं एक फकीर, सूफी | चरण पर मिट सकता है; बीच की यात्रा में रहेगा। वह रहना मजबूत फकीर की टिप्पणी पढ़ रहा था अल-हिल्लाज की हत्या पर। तो | | भी हो सकता है। और ऐसा भी हो सकता है. वह इतना मजबत हो उसने कहा कि यह बात ठीक नहीं है कि अल-हिल्लाज की हत्या | | जाए कि आखिरी चरण उठाने का मन ही न रहे, और अहंकार में की गई। लेकिन एक लिहाज से ठीक है। क्योंकि अल-हिल्लाज | ही ठहरकर रह जाए। की हत्या करने से क्या मिटता है! अल-हिल्लाज तो पा चुका था, | लेकिन भक्त को एक सुविधा है, वह पहले चरण पर ही मिट इसलिए हत्या करने से कोई हर्ज नहीं है। लेकिन इस हत्या करने से | सकता है। सुविधा ही नहीं है, पहले चरण पर उसे मिटना ही होगा, दूसरे लोग, जो कि अपने अहंकार को मजबूत कर लेते अनलहक क्योंकि वह साधना की शुरुआत ही वही है। रोग को साथ ले जाना कहकर, उनके लिए रुकावट हो गई। नहीं है। ज्ञानी का रोग साथ चल सकता है आखिरी तक। आखिर यह बात भी मुझे ठीक मालूम पड़ी। अल-हिल्लाज की हत्या से में छूटेगा, क्योंकि मिलन के पहले तो रोग मिटना ही चाहिए, नहीं कुछ मिटता ही नहीं, क्योंकि अल-हिल्लाज उसको पा चुका, जो तो मिलन नहीं होगा। लेकिन भक्त के पथ पर वह पहले, प्रवेश पर अमृत है। इसलिए उसको मारने में कोई हर्जा नहीं। अगर उसको न | | ही बाहर रखवा दिया जाता है, छुड़वा दिया जाता है। मारा जाए, तो न मालूम कितने नासमझ लोग चिल्लाने लगेंगे। भक्त अपने कर्मों को समर्पण कर देता है। वह कहता है, अब 44
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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