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पुरुष में थिरता के चार मार्ग
लात मारता हूं। मैं अपनी धूल में पड़ा हुआ फकीर मस्त हूं। मुझे | | उसी ऊंची जगह पर खड़े हैं, लेकिन वे बोल बहुत नीची जगह से तुम्हारे स्वर्ण-सिंहासनों की कोई भी जरूरत नहीं है। बार-बार यही रहे हैं, वहां जहां आप खड़े हैं। ध्वनि थी।
सदगुरु अपने हिसाब से चुनते हैं। वे किसको कहना चाहते हैं, गीत पूरा हो जाने पर मैंने उनसे पूछा कि अगर स्वर्ण-सिंहासनों इस पर निर्भर करता है। की सच में ही तुम्हें कोई फिक्र नहीं, तो यह गीत किसलिए लिखा | | महावीर आपको समझते हैं। वे जानते हैं कि आप चोर हो। और है? मैंने किसी सम्राट को इससे उलटा गीत लिखते आज तक नहीं आपको यह कहना कि चोरी और गैर-चोरी में कोई फर्क नहीं है, देखा, कि फकीरो, पड़े रहो अपनी मिट्टी में, हमें तुमसे कोई भी | | आप चोरी में ही लगे रहोगे। तो आपको समझा रहे हैं कि चोरी पाप ईर्ष्या नहीं। हम तुम्हारी फकीरी को लात मारते हैं। हम तुम्हारी | | है। हालांकि महावीर भी जानते हैं कि चोरी तभी पाप हो सकती है, फकीरी को दो कौड़ी का समझते हैं। हम अपने स्वर्ण-सिंहासन पर जब धन में मल्य हो। और जब धन में कोई मल्य नहीं है, चोरी में मजे में हैं। हमें तुमसे कोई ईर्ष्या नहीं है।
कोई मूल्य नहीं रह गया। मनुष्य जाति के हजारों साल के इतिहास में एक भी सम्राट ने ___ इसे हम ऐसा समझें। महावीर और बुद्ध समझा रहे हैं कि हिंसा ऐसा नहीं लिखा है। लेकिन फकीरों ने इस गीत जैसे बहुत गीत | पाप है और साथ ही यह भी समझा रहे हैं कि आत्मा अमर है, लिखे हैं। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है, फकीरों को | उसे काटा नहीं जा सकता। इन दोनों बातों में विरोध है। अगर मैं ईर्ष्या है। यह ईर्ष्या नहीं है, यह कहना भी ईर्ष्या से ही जन्म रहा है। | किसी को काट ही नहीं सकता, तो हिंसा हो कैसे सकती है? इसे
और फकीर कितना ही कह रहा हो, अपनी धूल में मस्त हैं, वह | थोड़ा समझें। अपने को समझा रहा है कि हम धूल में मस्त हैं। जान तो वह भी ___महावीर और बुद्ध कह रहे हैं कि हिंसा पाप है; किसी को मारो रहा है कि सम्राट सिंहासन पर मजा ले रहा है। नहीं तो सम्राट को | मत। और पूरी जिंदगी समझा रहे हैं कि मारा तो जा ही नहीं सकता, बीच में लाने का प्रयोजन क्या है? और स्वर्ण-सिंहासन अगर मिट्टी | क्योंकि आत्मा अमर है; और शरीर मरा ही हुआ है, उसको मारने ही है, तो बार-बार दोहराने की जरूरत क्या है?
का कोई उपाय नहीं है। कोई भी तो नहीं कहता कि मिट्टी मिट्टी है। लोग स्वर्ण मिट्टी है,। | आपके भीतर दो चीजें हैं, शरीर है और आत्मा है। महावीर और ऐसा क्यों कहते हैं? स्वर्ण तो स्वर्ण ही दिखाई पड़ता है, लेकिन | | बुद्ध भी कहते हैं कि आत्मा अमर है, उसको मारा नहीं जा सकता; वासना को दबाने के लिए आदमी अपने को समझाता है कि मिट्टी और शरीर मरा ही हुआ है, उसको मारने का कोई उपाय नहीं है। है, क्या चाहना उसको! लेकिन चाह भीतर खड़ी है, उस चाह को | | तो फिर हिंसा का क्या मतलब है? फिर हिंसा में पाप कहां है? काटता है। मिट्टी है, क्या चाहना उसको!
आत्मा मर नहीं सकती, शरीर मरा ही हुआ है, तो हिंसा में पाप कैसे . यह स्त्री की देह है, इसमें कोई भी सौंदर्य नहीं है; हड्डी, | हो सकता है? और जब आप किसी को मार ही नहीं सकते, तो
मांस-मज्जा भरा है, ऐसा अपने को समझाता है। सौंदर्य उसको बचा कैसे सकते हैं? यह भी थोड़ा समझ लें। दिखाई पड़ता है। उसकी वासना मांग करती है। उसकी वासना ___ अहिंसा की कितनी कीमत रह जाएगी! अगर हिंसा में कोई मूल्य दौड़ती है। वह वासना को काटने के उपाय कर रहा है। वह यह नहीं है, तो अहिंसा का सारा मूल्य चला गया। अगर आत्मा काटी समझा रहा है कि नहीं, इसमें हड्डी, मांस-मज्जा है; कुछ भी नहीं | | ही नहीं जा सकती, तो अहिंसा का क्या मतलब है? आप हिंसा कर है। सब गंदी चीजें भीतर भरी हैं; यह मल का ढेर है।
ही नहीं सकते, अहिंसा कैसे करिएगा! इसे थोड़ा ठीक से समझें। लेकिन यह समझाने की जरूरत क्या है? मल के ढेर को देखकर | हिंसा कर सकते हों, तो अहिंसा भी हो सकती है। जब हिंसा हो ही कोई भी नहीं कहता कि यह मल का ढेर है, इसकी चाह नहीं करनी नहीं सकती, तो अहिंसा कैसे करिएगा? चाहिए। अगर स्त्री में मल ही दिखाई पड़ता है, तो बात ही खतम | | लेकिन महावीर और बुद्ध आपंकी तरफ देखकर बोल रहे हैं। वे हो गई; चाह का सवाल क्या है! और चाह नहीं करनी चाहिए, ऐसी जानते हैं कि आपको न तो आत्मा का पता है, जो अमर है; न धारणा का क्या सवाल है!
| आपको इस बात का पता है कि शरीर जो कि मरणधर्मा है। आप कृष्ण बहुत ऊंची जगह से बोल रहे हैं। महावीर और बुद्ध भी तो शरीर को ही अपना होना मान रहे हैं, जो मरणधर्मा है। इसलिए
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