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________________ गीता दर्शन भाग-6 जरा ही क्रोध आता है, तो लगता है, दूसरे आदमी को तलवार से काटकर दो टुकड़े कर दो। आप जब दूसरे आदमी को काटने की सोचते हैं, तो आप दूसरे आदमी को भी शरीर मानकर चल रहे हैं। इसलिए हिंसा का भाव पैदा होता है। इस हिंसा के भाव के पैदा होने में आपकी भूल है, आपका अज्ञान है। यह अज्ञान टूटे, इसकी महावीर और बुद्ध चेष्टा कर रहे हैं। लेकिन कृष्ण का संदेश अंतिम है, आत्यंतिक है; वह अल्टिमेट है । वह पहली क्लास के बच्चों के लिए दिया गया नहीं है। वह आखिरी कक्षा में बैठे हुए लोगों के लिए दिया गया है। इसलिए कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि तू पागलपन की बात मत कर कि तू लोगों को काट सकता है। आज तक दुनिया में कोई भी नहीं काट सका। काटना असंभव है। क्योंकि वह जो भीतर है, शरीर को काटे जाने से कटता नहीं। वह जो भीतर है, शरीर को जलाने से जलता नहीं । वह जो भीतर है, शरीर को छेद सकते हैं। शस्त्र, वह छिदता नहीं। तो इसलिए तू पहली तो भ्रांति छोड़ दे कि तू काट सकता है। इसलिए तू हिंसक हो सकता है, यह बात ही भूल । और जब तू हिंसक ही नहीं हो सकता, तो अहिंसक होने का कोई सवाल नहीं है। यह परम उपदेश है। और इसलिए जिनके पास छोटी बुद्धि है, सांसारिक बुद्धि है, उनकी समझ में नहीं आ सकेगा। पर कुछ हर्जा नहीं, वे महावीर और बुद्ध को समझकर चलें। जैसे-जैसे उनकी समझ बढ़ेगी, वैसे-वैसे उनको दिखाई पड़ने लगेगा कि महावीर और बुद्ध भी कहते तो यही हैं। समझ बढ़ेगी, तब उनके खयाल में आएगा कि वे भी कहते हैं, आत्मा अमर है। वे भी कहते हैं कि आत्मा को मारने का कोई उपाय नहीं है। और वे भी कहते हैं कि धन केवल मान्यता है, उसमें कोई मूल्य है नहीं; मान्यता का मूल्य है। लेकिन जो माने हुए बैठे हैं, उनको छीनकर अकारण दुख देने की कोई जरूरत नहीं है। हालांकि दुख वे आपके द्वारा धन छीनने के कारण नहीं पाते हैं। वे धन में मूल्य मानते हैं, इसलिए पाते हैं। थोड़ा समझ लें। अगर मेरा कोई धन चुरा ले जाता है, तो मैं जो दुख पाता हूं, वह उसकी चोरी के कारण नहीं पाता हूं; वह दुख इसलिए पाता हूं कि मैंने अपने धन में बड़ा मूल्य माना हुआ था । वह मेरे ही अज्ञान के कारण मैं पाता हूं, चोर के कारण नहीं पाता । मैं तो पाता हूं इसलिए कि मैं सोचता था, धन बड़ा मूल्यवान है और कोई मुझसे छीन ले गया। कृष्ण कह रहे हैं, धन का कोई मूल्य ही नहीं है। इसलिए न चोरी का कोई मूल्य है और न दान का कोई मूल्य है। ध्यान रखें, धन में मूल्य हो, तो चोरी और दान दोनों में मूल्य है। फिर चोरी पाप है और दान पुण्य है। लेकिन अगर धन ही निर्मूल्य है, तो चोरी और दान, सब निर्मूल्य हो गए। यह आखिरी संदेश है। इसका मतलब यह नहीं है कि आप चोरी करने चले जाएं। | इसका यह भी मतलब नहीं है कि आप दान न करें। इसका कुल मतलब इतना है कि आप जान लें कि धन में कोई भी मूल्य नहीं है। कृष्ण यह नहीं कह रहे हैं कि तू हिंसा करने में लग जा। क्योंकि कृष्ण तो मानते ही नहीं कि हिंसा हो सकती है। इसलिए कैसे कहेंगे कि हिंसा करने में लग जा! कृष्ण तो यह कह रहे कि. हिंसा-अहिंसा भ्रांतियां हैं। तू कर नहीं सकता। लेकिन करने की अगर तू चेष्टा करे, तो तू अकारण दुख में पड़ेगा। इसे हम और तरह से भी समझें। क्योंकि यह बहुत गहरा है; और जैनों, बौद्धों और हिंदुओं के बीच जो बुनियादी फासला है, वह यह है। 334 इसलिए गीता को जैन और बौद्ध स्वीकार नहीं करते। कृष्ण को उन्होंने नरक में डाला हुआ है। अपने शास्त्रों में उन्होंने लिखा है कि कृष्ण नरक में पड़े हैं। और नरक से उनका छुटकारा आसान नहीं है, क्योंकि इतनी खतरनाक बात समझाने वाला आदमी नरक में | होना ही चाहिए। जो यह समझा रहा है कि अर्जुन, तू बेफिक्री से का, क्योंकि कोई कटता ही नहीं है। इससे ज्यादा खतरनाक और क्या संदेश होगा ! और जो कह रहा है, किसी भी तरह का वर्तन करो, वर्तन का कोई मूल्य नहीं है; सिर्फ पुरुष के भाव में प्रतिष्ठा चाहिए। तुम्हारे आचरण की कोई भी कीमत नहीं है। तुम्हारा अंतस कहां है, यही सवाल है। तुम्हारा आचरण कुछ भी हो, उसका कोई भी मूल्य नहीं है, न निषेधात्मक, न विधायक। तुम्हारे आचरण की कोई संगति ही नहीं है। तुम्हारी आत्मा बस, काफी है। ऐसी समाज विरोधी, आचरण विरोधी, नीति विरोधी, अहिंसा विरोधी बात ! तो जैनों ने उन्हें नरक में डाल दिया है। और तब तक वे न छूटेंगे, जब तक इस सृष्टि का अंत न हो जाए। दूसरी सृष्टि जब जन्मेगी, तब वे छूटेंगे । ठीक है। जैनों की मान्यता के हिसाब से कृष्ण खतरनाक हैं, नरक में डालना चाहिए। लेकिन कृष्ण को समझने की कोशिश करें, तो कृष्ण ने इस जगत में जो भी श्रेष्ठतम बात कही जा सकती है,
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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