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पुरुष में थिरता के चार मार्ग
वह कही है। लेकिन कहने का ढंग भी उनका उतना ही श्रेष्ठ है, जितनी बात श्रेष्ठ है। उन्होंने उसे छोटे लोगों के लिए, साधारण बुद्धि के लोगों के लिए मिश्रित नहीं किया, समझौता नहीं किया है। उन्होंने आपसे कोई समझौता नहीं किया है। सत्य जैसा है, उसे वैसा ही कह दिया है। उसके क्या परिणाम होंगे, इसकी भी फिक्र नहीं
। और निश्चित ही कुछ लोग तो चाहिए, जो सत्य को वैसा ही कह दें जैसा है, बिना परिणामों की फिक्र किए। अन्यथा कोई भी सत्य कहा नहीं जा सकता ।
महावीर, बुद्ध समझाते हैं, दूसरे को दुख मत दो। और महावीर, बुद्ध यह भी समझाते हैं कि तुम्हें जब दुख होता है, तो तुम्हारे अपने कारण होता है, दूसरा तुम्हें दुख नहीं देता। इन दोनों बातों का मतलब क्या हुआ ?
. एक तरफ कहते हैं, दूसरे को दुख मत दो; दुख देना पाप है। दूसरी तरफ कहते हैं कि तुम्हें जब कोई दुख देता है, तो तुम अपने ही कारण दुख पाते हो, दूसरा तुम्हें दुख नहीं दे रहा है। दूसरा तुम को दुख दे नहीं सकता।
ये दोनों बातें तो विरोधी हो गईं। इसमें पहली बात साधारण बुद्धि लोगों के लिए कही गई है; दूसरी बात परम सत्य है । और अगर दूसरी सत्य है, तो पहली झूठ हो गई।
जब मैं दुख पाता हूं, तो महावीर कहते हैं कि तुम अपने कारण दुख पा रहे हो, कोई तुम्हें दुख नहीं देता । एक आदमी मुझे पत्थर मार देता है। महावीर कहते हैं, तुम अपने कारण दुख पा रहे हो । क्योंकि तुमने शरीर को मान लिया है अपना होना, इसलिए पत्थर लगने से शरीर की पीड़ा को तुम अपनी पीड़ा मान रहे हो। ठीक ! मैं किसी के सिर में पत्थर मार देता हूं, तो महावीर कहते हैं, दूसरे को दुख मत पहुंचाओ।
यह बात कंट्राडिक्टरी हो गई। जब मुझे कोई पत्थर मारता है, तो दुख का कारण मैं हूं ! और जब मैं किसी को पत्थर मारता हूं, तब भी दुख का कारण मैं हूं !
यह दो तल पर है बात। दूसरे को दुख मत पहुंचाओ, यह क्षुद्र आदमी के लिए कहा गया है। क्योंकि क्षुद्र आदमी दूसरे को दुख पहुंचाने में बड़ा उत्सुक है; उसके जीवनभर का एक ही सुख है कि दूसरे को कैसे दुख पहुंचाएं। वह मरते दम तक एक ही बस काम करता रहता है कि दूसरों को कैसे दुख पहुंचाएं। जब वह सोचता भी है कि मेरा सुख क्या हो, तब भी दूसरे के दुख पर ही उसका सुख निर्भर होता है।
आप अपने सुखों को खोजें, तो आप पता लगा लेंगे कि जब तक आपका सुख दूसरे को दुख न देता हो, तब तक सुख नहीं मालूम पड़ता। आप एक बड़ा मकान बना लें, लेकिन जब तक दूसरों के मकान छोटे न पड़ जाएं, तब तक सुख नहीं मालूम पड़ता। आप जो भी कर रहे हैं, आपके सुख में दूसरे के सुख को मिटाने की चेष्टा है।
इस तरह के आदमी के लिए महावीर और बुद्ध कह रहे हैं कि दूसरे को दुख पहुंचाओ मत। लेकिन यह बात ऐसे झूठ है, क्योंकि दूसरे को कोई दुख पहुंचा नहीं सकता, जब तक कि दूसरा दुख पाने | को राजी न हो। यह दूसरे की सहमति पर निर्भर है। आप पहुंचा नहीं सकते।
फिर ऐसा क्यों कहा जा रहा है ? ऐसा इसलिए कहा जा रहा है कि दूसरे को दुख पहुंचाने की चेष्टा में दूसरे को तो दुख नहीं पहुंचाया जा सकता, तुम अपने को ही दुख पहुंचाओगे। वह तो हो ही नहीं सकता दूसरे को दुख पहुंचाना, लेकिन तुम अपने को दुख |पहुंचाओगे। क्योंकि तुम दुख के बीज बो रहे हो। और जो तुम दूसरे के लिए करते हो, वह तुम्हारे लिए होता जाता है।
और जब तुम्हारे लिए कोई दुख पहुंचाए, तब तुम समझना कि | कोई दूसरा तुम्हें दुख नहीं पहुंचा रहा है। यह हो सकता है कि तुम्हारे | अपने ही दूसरों को पहुंचाए गए दुखों के बीज दूसरे की सहायता से, संयोग से, निमित्त से अब तुम्हारे लिए फल बन रहे हों। लेकिन | दुख का मूल कारण तुम स्वयं ही हो।
यह दूसरी बात ऊंचे तल से कही गई है। और पहली बात को | जो पूरा कर लेगा, उसको दूसरी बात समझ में आ सकेगी। जो दूसरे
दुख पहुंचाना बंद कर देगा, उसे यह भी खयाल में आ जाएगा कि कोई दूसरा मुझे दुख नहीं पहुंचा सकता। यह दो तल की, दो कक्षाओं की बात है।
कृष्ण एक तल की सीधी बात कह रहे हैं, वे आखिरी बात कह रहे हैं। उनके सामने जो व्यक्ति खड़ा था, वह साधारण नहीं है। | जिस अर्जुन से वे बात कर रहे थे, उसकी प्रतिभा कृष्ण से जरा भी | कम नहीं है। संभावना उतनी ही है, जितनी कृष्ण की है। वह कोई मंद बुद्धि व्यक्ति नहीं है। वह धनी है प्रतिभा का । उसके पास वैसा ही निखरा हुआ चैतन्य है, वैसी ही बुद्धि है, वैसा ही प्रगाढ़ तर्क है। वे जिससे बात कर रहे हैं; वह शिखर की बात है।
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और इसीलिए गीता लोग कंठस्थ तो कर लेते हैं, लेकिन गीता को समझ नहीं पाते। और बहुत-से लोग जो गीता को मानते हैं, वे