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ॐ गीता दर्शन भाग-60
ध्यानेनात्मनि पश्यान्ति केचिदात्मानमात्मना । कृष्ण की शिक्षाएं प्रथम कोटि के मनुष्य की ही समझ में आ अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ।। २४ ।। | सकती हैं। वे अति जटिल हैं। और महावीर और बुद्ध की शिक्षाओं
अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते। से बहुत ऊंची हैं। थोड़ा कठिन होगा समझना। तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः ।। २५।। __हम सबको समझ में आ जाता है कि चोरी करना पाप है। चोर यावत्संजायते किंचित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम् । को भी समझ में आता है। आपको ही समझ में आता है, ऐसा नहीं;
क्षेत्राक्षेत्रजसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ ।। २६ ।। | चोर को भी समझ में आता है कि चोरी करना बुरा है। लेकिन चोरी और हे अर्जुन, उस परम पुरुष को कितने ही मनुष्य तो शुद्ध करना बुरा क्यों है? हुई सूक्ष्म बुद्धि से ध्यान के द्वारा हृदय में देखते हैं तथा अन्य चोरी करना बुरा तभी हो सकता है, जब संपत्ति सत्य हो; पहली कितने ही ज्ञान-योग के द्वारा देखते हैं तथा अन्य कितने ही बात। धन बहुत मूल्यवान हो और धन पर किसी का कब्जा माना निष्काम कर्म-योग के द्वारा देखते हैं।
जाए, व्यक्तिगत अधिकार माना जाए, तब चोरी करना बुरा हो परंतु इनसे दूसरे अर्थात जो मंद बुद्धि वाले पुरुष हैं, वे स्वयं सकता है। इस प्रकार न जानते हुए दूसरों से अर्थात तत्व के जानने वाले धन किसका है? एक तो यह माना जाए कि व्यक्ति का
पुरुषों से सुनकर ही उपासना करते हैं और वे सुनने के अधिकार है धन पर, इसलिए उससे जो धन छीनता है, वह परायण हुए पुरुष भी मृत्युरूप संसार-सागर को निस्संदेह नुकसान करता है। दूसरा यह माना जाए कि धन बहुत मूल्यवान तर जाते हैं।
है। अगर धन में कोई मूल्य ही न हो, तो चोरी में कितना मूल्य रह हे अर्जुन, यावन्मात्र जो कुछ भी स्थावर-जंगम वस्तु उत्पन्न जाएगा? इसे थोड़ा समझें। होती है, उस संपूर्ण को तू क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही जितना मूल्य धन में होगा, उतना ही मूल्य चोरी में हो सकता है। उत्पन्न हुई जान।
अगर धन का बहुत मूल्य है, तो चोरी का मूल्य है। लेकिन कृष्ण जिस तल से बोल रहे हैं, वहां धन मिट्टी है।
यह बड़े मजे की बात है कि महावीर को मानने वाले जैन साधु पहले कुछ प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है कि भगवान भी कहते हैं, धन मिट्टी है। और फिर भी कहते हैं, चोरी पाप है। बुद्ध ने सत्य, अहिंसा, झूठ न बोलना, चोरी न करना, | मिट्टी को चुराना क्या पाप होगा? धन कचरा है। और फिर भी कहते बुरा न करना, यह सिखाया है। परंतु कृष्ण की गीता | हैं, चोरी पाप है! अगर धन कचरा है, तो चोरी पाप कैसे हो सकती में हिंसा का मार्ग बतलाया गया है। कृष्ण चोरी | है? कचरे को चुराने को कोई पाप नहीं कहता। वह धन लगता तो करना, झूठ बोलना, संभोग से समाधि की ओर जाना
| मूल्यवान ही है। सिखाते हैं। तो आप यह कहिए कि जो हिंसा का मार्ग असल में जो समझाते हैं कि कचरा है, वे भी इसीलिए अपने को बताता है, क्या वह भगवान माना जा सकता है? समझा रहे हैं, बाकी लगता तो उनको भी धन मूल्यवान है। इसलिए
धन की चोरी भी मूल्यवान मालूम पड़ती है।
मैं एक जैन मुनि के पास था, उन्होंने अपनी एक कविता मुझे ल द्ध, महावीर की शिक्षाएं नैतिक हैं और बहुत साधारण | सुनाई। उस कविता में उन्होंने बड़े अच्छे शब्द संजोए थे। और जो ५ आदमी को ध्यान में रखकर दी गई हैं। कृष्ण की | भी उनके आस-पास लोग बैठे थे, वे सब सिर हिलाने लगे। गीत
शिक्षाएं धार्मिक हैं और बहुत असाधारण आदमी को | अच्छा था; लय थी। लेकिन अर्थ? अर्थ बिलकुल ही व्यर्थ था। ध्यान में रखकर दी गई हैं।
अर्थ यह था उस गीत का कि हे सम्राटो, तुम अपने बद्ध. महावीर की शिक्षाएं अत्यंत साधारण बद्धि के आदमी की। | स्वर्ण-सिंहासनों पर बैठे रहो; मैं अपनी धूल में ही पड़ा हुआ मस्त भी समझ में आ जाएंगी; उनमें जरा भी अड़चन नहीं है। उसमें थर्ड हूं। मुझे तुम्हारे स्वर्ण-सिंहासन की कोई भी चाह नहीं। मेरे लिए रेट, जो आखिरी बुद्धि का आदमी है, उसको ध्यान में रखा गया है। तुम्हारा स्वर्ण-सिंहासन मिट्टी जैसा है। मैं तुम्हारे स्वर्ण-सिंहासन को
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