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गीता दर्शन भाग-60
में ज्यादा सवाल उठाता है! कौन-से मार्ग में उसके भीतर तरंगें उठने | | जो निकल रहा है कचरा-कूड़ा, उसमें से वह पकड़ ले कि इसकी लगती हैं! कौन-से मार्ग में वह समाधिस्थ होकर सुनने लगता है! | आत्मा की तरफ स्वास्थ्य का क्या मार्ग होगा। कौन-से मार्ग में ऊब जाता है, जम्हाई लेता है! कौन-से मार्ग से | लेकिन यह बड़ी लंबी बात है। इसमें कभी तीन साल लग जाते उसका तालमेल बैठता है; कौन-से मार्ग से कोई तालमेल नहीं | हैं और कभी तीस साल भी लग जाते हैं, पूरा मनोविश्लेषण होते बैठता! यह सब वे देखते जा रहे हैं। इस सारी चर्चा के साथ-साथ हुए। अगर इस तरह मनोविश्लेषण किया जाए, तो कितने लोगों का अर्जुन का निरीक्षण चल रहा है। एक अर्थ में यह अर्जुन का | | मनोविश्लेषण होगा? और तीस साल के बाद भी फ्रायड यह नहीं मनोविश्लेषण है।
| कह सकता कि मनोविश्लेषण सच में ही पूरा हो गया। क्योंकि यह फ्रायड ने इस सदी में मनोविश्लेषण की कला खोजी। निकलता ही जाता है। यह कचरा अंतहीन है।
यह थोड़ा खयाल में ले लेना जरूरी होगा। और जो लोग ___ यह आपकी खोपड़ी इतनी विस्तीर्ण है! इतनी छोटी नहीं है, मनसशास्त्र में उत्सुक हैं और जो लोग साधना के लिए जरा भी | | जितनी दिखाई पड़ती है। इसमें लाखों शब्द भरे हुए हैं; और लाखों जिज्ञासा रखते हैं, उनके बहुत काम का होगा।
तथ्य भरे हुए हैं। अगर इनको खोलते ही चले जाएं, तो वे खुलते. फ्रायड ने एक मार्ग खोजा। वह मार्ग बिलकुल उलटा है। जैसा ही चले जाते हैं। तो यह तो बहुत लंबा हो गया मार्ग। मार्ग गुरु हमेशा उपयोग करते रहे थे, उससे उलटा है। फ्रायड अपने और अब पश्चिम में भी मनोवैज्ञानिक कहने लगे हैं कि मरीज को लिटा देता है कोच पर, पीछे बैठ जाता है परदे की ओट | साइकोएनालिसिस से कुछ हल नहीं हो सकता। अगर एक पागल में। और मरीज से कहता है, जो भी तुझे कहना हो, कह। तू को ठीक करने में तीस साल लग जाएं या दस साल लगें, तो कितने बिलकुल फिक्र मत कर कि क्या कह रहा है। जो भी तेरे भीतर आता पागल तुम ठीक कर पाओगे? और यह पूरी जमीन पागल मालूम हो, उसको तू कहता जा। सहज एसोसिएशन से, जो भी तेरे भीतर होती है। यहां कौन किसका मनोविश्लेषण करेगा! . आ जाए साहचर्य से, तू कहता जा।
और बड़े मजे की तो बात यह है कि मनोविश्लेषक भी अपना ___ मरीज कहना शुरू कर देता है। अनर्गल बातें भी कहता है। कभी | | मनोविश्लेषण दूसरे से करवाता है। करवाना पड़ता है। क्योंकि सार्थक बातें भी कहता है। कभी अचानक कुछ भी आ जाता है फ्रायड की शर्त यह है कि जब तक तुम्हारा खुद का मनोविश्लेषण असंगत, वह भी कहता है। पर उसको इसी का सहारा देता है फ्रायड न हो गया हो, तब तक तुम दूसरे का कैसे करोगे? तो पहले कि तू सिर्फ कहता जा, जो भी तेरे भीतर है। और फ्रायड परदे के | मनोविश्लेषक अपना मनोविश्लेषण करवाता है वर्षों तक। फिर वह पीछे बैठकर सुनता है।
दूसरों का करने लगता है। मगर कितने भी मनोविश्लेषक हों, तो वह इस मनुष्य के मन में प्रवेश कर रहा है। इसके भीतर जो भी क्या होगा इस जमीन पर? चलती रहती हैं बातें, जो विचार, जो शब्द, वह उनकी जांच कर | भारत की परंपरा कुछ और थी। हमने भी तरकीब खोजी थी। रहा है। इन शब्दों के माध्यम से वह उसके भीतर खोज रहा है, | | इसमें शिष्य नहीं बोलता था, इसमें गुरु बोलता था। यह जरा फर्क कितनी असंगति है, कितना उपद्रव है, कितनी विक्षिप्तता है। इन | समझ लेना। यह कृष्ण और अर्जुन की बात में खयाल आ जाएगा। शब्दों के बीच-बीच में से कहीं-कहीं उसे संध मिल जाती है, यहां शिष्य नहीं बोलता था। और हम शिष्य को मरीज नहीं कहते, जिससे कोई कुंजी मिल जाती है; जिससे पता चलता है। | वह शब्द ठीक नहीं है। हालांकि सभी शिष्य मरीज हैं। लेकिन वह ___ जैसे किसी आदमी को लिटाया और वह एकदम गंदी गालियां | शब्द ही ठीक नहीं है, वह बेहूदा है। और अब पश्चिम में भी बकने लगा, अश्लील बातें बोलने लगा, तो खयाल में आता है कि | मनोवैज्ञानिक कहने लगे कि मरीज शब्द उपयोग करना ठीक नहीं है, उसके भीतर क्या चल रहा है। और ऐसे वह भला आदमी था। क्योंकि उससे हम दूसरे को मरीज कहकर मरीज बनाने में सहयोगी अच्छा आदमी था। चर्च जाता था। सभी तरह नैतिक था। और होते हैं। क्योंकि जो भी शब्द हम देते हैं, उसका परिणाम होता है। भीतर उसके यह चल रहा है!
किसी आदमी से कहो कि तुम बड़े सुंदर हो; वह फौरन खिल तो फ्रायड वर्षों मेहनत करता है एक मरीज के साथ। ताकि | | जाता है। इतना सुंदर था नहीं कहने के पहले; कहते से ही खिल धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, वह कितना छिपाए, छिपा न पाए, और भीतर | जाता है। किसी आदमी को कह दो कि तुम जैसी शक्ल! पता नहीं
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