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________________ ॐ गीता दर्शन भाग-60 अहंकारी पुण्यात्मा के। फकीर लौटा। रात उसे देवदूत जमीन पर छोड़ गए। बड़ी मुश्किल सुना है मैंने कि एक साधु, एक फकीर मरा। उसने जीवन में कोई | | खड़ी हुई। उसने कभी कोई पाप न किया था। बारह घंटे का कुल पाप नहीं किया था। इंच-इंच सम्हालकर चला था। जरा-सी भी समय था। सूझ में ही न आता था उसको कि कौन-सा पाप करूं! भूल-चूक न हुई थी। वह बिलकुल निश्चित था कि स्वर्ग के द्वार फिर यह भी था कि छोटा ही हो, ज्यादा न हो जाए। और अनुभव न पर परमात्मा मेरा स्वागत करने को तैयार होगा। निश्चितता | होने से पाप का, बड़ी अड़चन थी। बहुत सोचा-विचारा, कुछ स्वाभाविक थी। फिर जिंदगीभर कष्ट झेला था उसने। और पुरस्कार सोच-समझ में नहीं आया कि क्या करूं। फिर भी सोचा कि गांव की मांग थी। स्वभावतः अकड़ भी थी। जब वह स्वर्ग के दरवाजे की तरफ चलूं। पर पहुंचा, तो सिर झुकाकर प्रवेश करने का मन न था। बैंड-बाजे | __ जैसे ही गांव में प्रवेश करता था, एक बिलकुल काली-कलूटी से स्वागत होगा, यही कहीं गहरे में धारणा थी। बदशक्ल स्त्री ने इशारा किया झोपड़े के पास। घबड़ाया। स्त्रियों से लेकिन दरवाजे पर जो दूत मिला, दरवाजा तो बंद था और उस सदा दूर रहा था। पर सोचा कि यही पाप सही। कोई तो पाप करना दूत ने कहा कि तुम एक अजीब आदमी हो। तुम पहले ही आदमी ही है। और फिर स्त्री इतनी बदशक्ल है कि पाप भी छोटा ही होगा। हो जो बिना पाप किए यहां आ गए हो। अब हम बड़ी मुश्किल में चला गया। स्त्री तो बड़ी आनंदित हुई। हैं। क्योंकि यहां के जो नियम हैं, उनमें तुम कहीं भी नहीं बैठते। रात उस स्त्री के पास रहा, उसे प्रेम किया। और सुबह भगवान किताब में लिखा है-स्वर्ग के दरवाजे के नियम की किताब को धन्यवाद देता हुआ कि चलो, एक पाप हो गया, अब प्रायश्चित्त में-कि जो पाप किया हो बहुत, उसे नरक भेज दो; जो पाप कर | कर लूंगा और स्वर्ग में प्रवेश हो जाएगा। जैसे ही झोपड़े से विदा के प्रायश्चित्त किया हो, उसे स्वर्ग भेज दो। तुमने पाप ही नहीं | होने लगा, वह स्त्री उसके पैरों पर गिर पड़ी और उसने कहा कि किया। तुम्हें नरक भेजें, तो मुश्किल है। क्योंकि जिसने पाप नहीं फकीर, मुझे कभी किसी ने चाहा नहीं, किसी ने कभी प्रेम नहीं किया, उसे नरक कैसे भेजें! और तुमने पाप किया ही नहीं, इसलिए किया। तुम पहले आदमी हो जिसने मुझे इतने प्रेम और इतनी चाहत प्रायश्चित्त का कोई सवाल ही नहीं है। तुम्हें स्वर्ग कैसे भेजें! | से देखा। इतने प्रेम से मुझे स्पर्श किया और अपने पास लिया। एक दरवाजे बंद हैं दोनों-स्वर्ग का भी, नरक का भी। और तुम्हारे | ही प्रार्थना है कि इस पुण्य का भगवान तुम्हें खूब पुरस्कार दे। साथ हम क्या करें, लीगल झंझट खड़ी हो गई है। फकीर की छाती बैठ गई। इस पुण्य का भगवान तुम्हें पुरस्कार तुम्हारी बड़ी कृपा होगी, तुम जमीन पर लौट जाओ; बारह घंटे दे! फकीर ने घड़ी देखी कि मुसीबत हो गई, घंटाभर ही बचा है। ये का हम तुम्हें वक्त देते हैं; हमें झंझट में मत डालो। सदा का चला ग्यारह घंटे खराब हो गए! हुआ नियम है, उसको तोड़ो मत। बारह घंटे के लिए लौट जाओ, आगे का मुझे पता नहीं है कि उसने घंटेभर में क्या किया। स्वर्ग और छोटा-मोटा सही, एक पाप करके आ जाओ। फिर प्रायश्चित्त | वह पहुंच पाया किं नहीं पहुंच पाया! लेकिन मुश्किल है कि वह कर लेना। स्वर्ग का दरवाजा तुम्हारा स्वागत कर रहा है। फिर तुम | कोई पाप कर पाया हो। उसका कारण है। इस कहानी से कई बातें इतने अकड़े हुए हो कि नरक जाने योग्य हो, लेकिन पाप तुमने किया खयाल में ले लेनी जरूरी हैं। नहीं! और स्वर्ग में तो वही प्रवेश करता है, जो विनम्र है, और विनम्र पहली बात तो, इतना आसान नहीं है तय करना कि क्या पाप है तुम जरा भी नहीं हो। एक छोटा पाप कर आओ। थोड़ी विनम्रता भी | और क्या पुण्य है, जितना आसान हम सोचते हैं। हम तो कृत्यों पर आ जाएगी। थोड़ा झुकना भी सीख जाओगे। और तुमने एक भी पाप लेबल लगा देते हैं कि यह पाप है और यह पुण्य है। कोई कृत्य न नहीं किया, तो तुमने मनुष्य जीवन व्यर्थ गंवा दिया। पाप है, न पुण्य है। बहुत कुछ करने वाले पर और करने की स्थिति वह फकीर बहुत घबड़ाया। उसने कहा, क्या कहते हैं। मनुष्य पर निर्भर करता है। जीवन व्यर्थ गंवा दिया? तो उस देवदूत ने कहा कि थोड़ा-सा पाप निश्चित ही फिर से सोचिए, हंसिए मत इस कहानी में। जिस कर ले तो मनुष्य विनम्र होता है, झुकता है, अस्मिता टूटती है। और स्त्री को कभी किसी ने प्रेम न किया हो, उसको किसी का प्रेम करना थोड़ा-सा पाप मानवीय है, ह्यूमन है। तुम इनह्यूमन मालूम होते हो, अगर पुण्य जैसा मालूम पड़ा हो, तो कुछ भूल है? और अगर बिलकुल अमानवीय मालूम पड़ते हो। तुम लौट जाओ। परमात्मा भी इसको पुण्य माने, तो क्या आप कहेंगे कि गलती हुई ?
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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