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• पाप और प्रार्थना
नहीं है, कोई अड़चन नहीं है, सब सुविधा है, लेकिन बस सिर । प्रार्थनापूर्वक जो पाप से मुक्त होता है, वही मुक्त होता है। बिना चलता रहता है।
| प्रार्थना के पाप से मुक्त होने की बहुत लोग कोशिश करते हैं। कि कोई तकलीफ नहीं है; कोई उलझन नहीं है; कोई समस्या नहीं | प्रार्थना की क्या जरूरत? हम अपने को खुद ही पवित्र कर लेंगे। है; फिर सिर क्यों चलता रहता है ? उसका अर्थ हुआ कि बुद्धि के | किसी परमात्मा के सहारे की कोई जरूरत नहीं है। हम खुद ही अपने साथ आप एक हो गए हैं। अपने को अलग नहीं कर पा रहे हैं। । | को ठीक कर लेंगे। चोरी है, तो चोरी छोड़ देंगे। बेईमानी है, तो
जो आदमी बुद्धि से अपने को अलग कर लेगा, वही भाव में बेईमानी छोड़ देंगे; ईमानदार हो जाएंगे। प्रवेश कर पाता है। और बुद्धि ने अब इतनी पीड़ा दे दी है कि हम | लेकिन ध्यान रहे, कभी-कभी पापी भी परमात्मा को पहंच जाते अपने को अलग कर पाएंगे; करना पड़ेगा। बुद्धि ने इतना दंश दे | | हैं, इस तरह के पुण्यात्मा कभी नहीं पहुंच पाते। क्योंकि जो कहता दिया है, बुद्धि के कांटे इतने चुभ गए हैं छाती पर कि अब ज्यादा | | है कि मैं बेईमानी छोड़ दूंगा, वह बेईमानी छोड़ भी सकता है, दिन बुद्धि के साथ नहीं चला जा सकता है। इसलिए मैं कहता हूं | | लेकिन उसकी ईमानदारी के भीतर भी जो अहंकार होगा, वही कि इस बुद्धि के युग में भी श्रद्धा की बड़ी क्रांति की संभावना है। | उसका पाप हो जाएगा।
विनम्रता, ऐसी विनम्रता जो पुण्य का भी गर्व नहीं करती, प्रार्थना
के बिना नहीं आएगी। एक मित्र ने पूछा है कि पाप और पुण्य का भेद क्या और फिर आप अगर सच में ही इतने अलग होते जगत से, तो है? और जब तक मन पाप से भरा है, तब तक श्रद्धा, आप खुद ही अपना रूपांतरण कर लेते। आप इस जगत के एक भक्ति, भाव कैसे होगा? प्रार्थना कैसे होगी, जब तक हिस्से हैं। यह पूरा जगत आपसे जुड़ा है। यहां जो भी हो रहा है, मन पाप से भरा है? तो पहले मन पुण्य से भरे, फिर | उसमें आप सम्मिलित हैं। आप अलग-थलग नहीं हैं कि आप प्रार्थना होगी!
अपने को पुण्यात्मा कर लेंगे। इस समग्र अस्तित्व का सहारा मांगना पड़ेगा।
__ आदमी बहुत कमजोर भी है, असहाय भी है। वह जो भी करता ++ क लगता है। समझ में आता है। फिर भी ठीक नहीं | | है, वह सब असफल हो जाता है। अपने को अलग मानकर आदमी 1 है। और नासमझी से भरी हुई बात है।
जो भी करता है, वह सब टूट जाता है। जब तक इस पूरे के साथ - ठीक लगता है कि जब तक मन पाप से भरा है, तो | अपने को एक मानकर आदमी चलना शुरू नहीं करता, तब तक प्रार्थना कैसे होगी! यह तो ऐसे ही हुआ कि कोई चिकित्सक कहे | जीवन में कोई महत घटना नहीं घटती। कि जब तक तुम बीमार हो, जब तक मैं औषधि कैसे दूंगा! पहले प्रार्थना का इतना ही अर्थ है। प्रार्थना का अर्थ है कि मैं अकेला तुम ठीक हो जाओ, स्वस्थ हो जाओ, फिर औषधि ले लेना। | नहीं हूं। प्रार्थना का अर्थ है कि अकेला होकर मैं बिलकुल असहाय लेकिन जब ठीक हो जाओ, तो औषधि की जरूरत क्या होगी? | हूं। प्रार्थना का अर्थ है कि इस पूरे अस्तित्व का सहारा न मिले, तो
अगर पाप छोड़ने पर प्रार्थना करने का आपने तय किया है, तो | मुझ से कुछ भी न हो सकेगा। प्रार्थना इस हेल्पलेसनेस, इस आपको कभी प्रार्थना करने का मौका नहीं आएगा। जब तक पाप असहाय अवस्था का बोध है। और प्रार्थना पुकार है अस्तित्व के है, आप प्रार्थना न करोगे। और जब पाप ही न रह जाएगा, तो प्रति कि तेरा सहारा चाहिए, तेरा हाथ चाहिए, तेरे बिना इस रास्ते प्रार्थना किसलिए करोगे? फिर प्रार्थना का अर्थ क्या है? पर चलना मुश्किल है। प्रार्थना औषधि है। इसलिए पापी रहकर ही प्रार्थना करनी पड़ेगी। तो प्रार्थनापूर्ण व्यक्ति में जब पुण्य आता है, तो वह पुण्य का भी
और दूसरी बात कि पाप हट कैसे जाएगा? बिना प्रार्थना के हट धन्यवाद परमात्मा को देता है, अपने को नहीं। प्रार्थनाहीन व्यक्ति न पाएगा। और बिना प्रार्थना के जो पाप को हटाते हैं, उनका पुण्य | अगर पुण्य भी कर ले, तो अपनी ही पीठ ठोकने की कोशिश करता उनके अहंकार का आभूषण बन जाता है। और अहंकार से बड़ा है; वह भी पाप हो जाता है। इसलिए कई बार तो ऐसा होता है कि पाप नहीं है।
निरहंकारी पापी भी परमात्मा के पास जल्दी पहुंच जाता है बजाय