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पाप और प्रार्थना
वह फकीर भी बाद में चिंता में पड़ गया कि पुण्य क्या है ? पाप क्या है ? अगर दूसरे को इतना सुख मिला हो, तो पाप कहां है ? अगर दूसरा इतना आनंदित हुआ हो कि उसके जीवन का फूल पहली दफा खिला हो, तो पाप कहां है?
पाप कृत्य में नहीं है। कृत्य का क्या परिणाम होता है। उसमें भी परिणामों का कोई अंत नहीं है। आपने कृत्य आज किया है, परिणाम हजारों साल तक होते रहेंगे उस कृत्य के। क्योंकि परिणामों की श्रृंखला है।
अगर सारे परिणाम कृत्य में समाविष्ट किए जाएं, तो तय करना बहुत मुश्किल है कि क्या है पाप, क्या है पुण्य। कई बार आप पुण्य करते हैं और पाप हो जाता है। आप पुण्य ही करना चाहते थे और पाप हो जाता है। किस कृत्य को क्या नाम दें! कृत्य सवाल नहीं है।
दूसरी बात इस कहानी से खयाल में ले लेनी जरूरी है कि वह फकीर तो पाप करना चाहता था जान-बूझकर, फिर भी पाप नहीं हो पाया। यह बहुत गहन है।
पश्चिम का एक बहुत बड़ा विचारक था पी. डी. आस्पेंस्की । उसके शिष्य बेनेट ने लिखा है कि जब पहली दफा उसने हमें शिक्षा देनी शुरू की, तो उसकी शिक्षाओं में एक खास बात थी, जान-बूझकर पाप करना । और हम सब लोग बैठे थे और उसने कहा कि घंटेभर का समय देता हूं, तुम जान-बूझकर कोई ऐसा काम करो, जिसको तुम समझते हो कि वह एकदम बुरा है और करने योग्य नहीं है।
बेनेट ने लिखा है कि घंटेभर हम बैठकर सोचते रहे। बहुत उपाय किया कि किसी को गाली दे दें, धक्का मार दें, चांटा लगा दें। लेकिन कुछ भी न हुआ । और घंटा खाली निकल गया और आस्पेंस्की हंसने लगा और उसने कहा कि तुम्हें पता होना चाहिए, पाप को जान-बूझकर किया ही नहीं जा सकता। यू कैन नाट डू ईविल कांशसली । वह जो बुराई है, उसको सचेतन रूप से करने का उपाय ही नहीं है। बुराई का गुण ही है अचेतन होना।
इसलिए फकीर मुश्किल में पड़ गया। वह कोशिश करके पाप करने निकला था।
आप कोशिश करके पाप करने नहीं निकलते हैं; पाप हो जाता है। आपको कोशिश नहीं करनी पड़ती। कोशिश तो आप करते हैं। किन करूं, फिर भी हो जाता है । पाप होता है— कोशिश से नहीं, होशपूर्वक नहीं - पाप होता बेहोशी में, मूर्च्छा में।
इसलिए पाप का एक मौलिक लक्षण है, मूर्च्छित कृत्य । जो कृत्य
मूर्च्छा में होता है, वह पाप है । और जो कृत्य होशपूर्वक हो सकता है, वही पुण्य है। इसको हम ऐसा भी समझ सकते हैं कि जिस काम को करने के लिए मूर्च्छा अनिवार्य हो, उसको आप समझना कि पाप है । और जिस काम को करने के लिए होश अनिवार्य हो, जो होश के बिना हो ही न सके, होश में ही हो सके, समझना कि ' पुण्य है। बुद्ध का शिष्य आनंद, कुछ साधु यात्रा पर जा रहे हैं, तो उनकी तरफ से बुद्ध से पूछने खड़ा हुआ कि ये साधु यात्रा पर जाते हैं उपदेश करने। इनकी कुछ उलझनें हैं। एक उलझन का आप जवाब दे दें; बाकी तो मैंने इन्हें समझा दिया है।
तो बुद्ध ने पूछा, क्या उलझन है? तो आनंद ने कहा कि ये फकीर पूछते हैं- ये सब भिक्षु पूछते हैं — कि अगर स्त्री के पास रहने का कोई अवसर आ जाए, तो रुकना कि नहीं रुकना ? तो बुद्ध ने कहा, मत रुकना । स्त्री से दूर रहना। तो आनंद ने पूछा, और कहीं ऐसी मजबूरी ही हो जाए कि रुकना ही पड़े, तो क्या करना ? तो बुद्ध ने | कहा, स्त्री की तरफ देखना मत। आंख नीची रखना।
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यह बात पुरुष के लिए लागू हो जाएगी। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । स्त्री की तरफ देखना ही मत; आंख नीची रखना ।
पर आनंद ने कहा कि ऐसा कोई अवसर आ जाए कि आंख उठानी ही पड़े और स्त्री को देखना ही पड़े? तो बुद्ध ने कहा, स्पर्श
जिस कृत्य को भी होशपूर्वक किया जा सके, वह पाप नहीं रह | जाता। और अगर पाप होगा, तो किया ही न जा सकेगा। मूर्च्छा जरूरी है। इसलिए मैं पाप की व्याख्या करता हूं, मूच्छित कृत्य । पुण्य की व्याख्या करता हूं, होशपूर्ण कृत्य ।
मत करना ।
पर आनंद भी जिद्दी था और इसलिए बुद्ध से बहुत-सी बातें निकलवा पाया । उसने कहा, यह भी मान लिया। पर कभी ऐसा | अवसर आ जाए - बीमारी, कोई दुर्घटना – कि स्त्री को छूना पड़े, तो उस हालत में क्या करना? तो बुद्ध ने कहा, अब आखिरी बात कहे देता हूं, होश रखना छूते वक्त । और बाकी सब बातें फिजूल हैं। अगर होश रखा जा सके, तो बाकी सब बातें फिजूल हैं। बाकी उनके लिए हैं, जो होश न रख सकते हों।
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लेकिन आप पुण्य भी करते हैं, तो मूर्च्छा में करते हैं। फिर समझ लेना कि वह पुण्य नहीं है। चार लोग आ जाते हैं और आपको काफी फुसलाते हैं, फुलाते हैं, कि आप जैसा दानी कोई भी नहीं है | जगत में; एक मंदिर बनवा दें। नाम रह जाएगा। वे आपकी मूर्च्छा को उकसा रहे हैं। वे आपके अहंकार को तेल दे रहे हैं। वे आपके