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________________ ॐ गीता दर्शन भाग-60 क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् । | तरफ के आखिरी छोर को छू लेता है, तो दाईं तरफ घूमना शुरू अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवमिरवाप्यते ।। ५।। हो जाता है। ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः । ___ यह युग बुद्धि का युग है, इतना ही काफी नहीं है जानना। यह अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ।।६।। युग बुद्धि से पीड़ित युग भी है। इस युग की ऊंचाइयां भी बुद्धि की किंतु उन सच्चिदानंदघन निराकार ब्रह्म में आसक्त हुए चित्त | हैं, इस युग की परेशानियां भी बुद्धि की हैं। इस युग की पीड़ा भी वाले पुरुषों के साधन में क्लेश अर्थात परिश्रम विशेष है, । | बुद्धि है। क्योंकि देहाभिमानियों से अव्यक्त विषयक गति दुखपूर्वक यह सारा आज का चिंतनशील मस्तिष्क परेशान है, विक्षिप्त है। प्राप्त की जाती है। अर्थात जब तक शरीर में अभिमान रहता | और जैसे-जैसे सभ्यता बढ़ती है, वैसे-वैसे हमें पागलखाने बढ़ाने है, तब तक शुद्ध सच्चिदानंदघन निराकार ब्रह्म में स्थिति पड़ते हैं। जितना सभ्य मल्क हो, उसकी जांच का एक सीधा उपाय होनी कठिन है। है कि वहां कितने ज्यादा लोग पागल हो रहे हैं! और जो मेरे परायण हुए भक्तजन संपूर्ण कर्मों को मेरे में बुद्धि पर ज्यादा जोर पड़ता है, तो तनाव सघन हो जाता है। हृदय अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्वर को ही तैलधारा के | हलका करता है, बुद्धि भारी कर जाती है। हृदय एक खेल है, बुद्धि सदृश अनन्य भक्ति-योग से निरंतर चिंतन करते हुए भजते | एक तनाव है। है, उनका में शीघ्र ही उद्धार करता हूं। तो बुद्धि की इतनी पीड़ा के कारण और बुद्धि का इतना संताप | जो पैदा हुआ है, उसके कारण, दूसरी तरफ घूमने की संभावना पैदा हो गई है। पहले कुछ प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है कि आज के हम बुद्धि से परेशान हैं। इस परेशानी के कारण हम भाव की बौद्धिक युग में भक्ति, भाव-साधना का मार्ग कैसे | | तरफ उन्मुख हो सकते हैं। और मेरी अपनी समझ ऐसी है कि शीघ्र उपयुक्त हो सकता है? श्रद्धा के अभाव में | ही पृथ्वी पर वह समय आएगा, जब पहली दफा मनुष्य भाव में भक्ति-साधना में प्रवेश कैसे संभव है? | इतना गहरा उतरेगा, जितना इसके पहले कभी भी नहीं उतरा था। गांव का एक ग्रामीण है, तो गांव का ग्रामीण भावपूर्ण होता है, | लेकिन अगर कभी कोई शहर का बुद्धिमान भाव से भर जाए, तो + सा प्रश्न बहुतों के मन में उठता है। युग तो बुद्धि का | गांव का ग्रामीण उसके भाव का मुकाबला नहीं कर सकता है। ५ है, तो भाव की तरफ गति कैसे हो सके? दोनों में | क्योंकि जिसने बुद्धि के शिखर को जाना हो और जब उस शिखर विपरीतता है; दोनों उलटे छोर मालूम पड़ते हैं। से वह भाव की खाई में गिरता है, तो उस खाई की गहराई उतनी ही हमारा सारा शिक्षण, सारा होती है. जितनी शिखर की ऊंचाई थी। जितनी ऊंचाई से आप गिरते कोई शिक्षा है, न कोई संस्कार है। भाव के विकसित होने का कोई हैं, उतनी ही गहराई में गिरते हैं। अगर आप समतल जमीन पर उपाय भी दिखाई नहीं पड़ता। सारी जीवन की व्यवस्था बुद्धि से गिरते हैं, तो आप कहीं गिरते ही नहीं। चलती मालूम पड़ती है। तो इस बुद्धि के शिखर पर बैठे हुए युग तो गांव के ग्रामीण की जो भाव-दशा है, वह बहुत गहरी नहीं में, कैसे भाव की तरफ गति होगी? कैसे भक्ति की तरफ रास्ता | । हो सकती है। लेकिन शहर के बुद्धिमान की, सुशिक्षित की, खुलेगा? | सुसंस्कृत की जब भाव-दशा पैदा होती है, तो वह उतनी ही गहरी जीवन का एक बहुत अनूठा नियम है, वह आप समझ लें। वह | होती है-उतनी ही विपरीत गहरी होती है-जितने शिखर पर वह नियम है कि जब भी हम एक अति पर चले जाते हैं, तो दूसरी अति | खड़ा था। . पर जाना आसान हो जाता है। जब भी हम एक छोर पर पहुंच जाते ___ मनुष्यता बुद्धि के शिखर को छू रही है। और बुद्धि के शिखर हैं, तो दूसरे छोर पर पहुंचना आसान हो जाता है, घड़ी के पेंडुलम | | को छूने से जो-जो आशाएं हमने बांधी थीं, वे सभी असफल हो की तरह। घड़ी का पेंडुलम घूमता है बाईं तरफ, और जब बाईं | गई हैं। जो भी हमने सोचा था, मिलेगा बुद्धि से, वह नहीं मिला।
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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