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________________ दुख से मुक्ति का मार्गः तादात्म्य का विसर्जन पास बहुत दुबला शरीर है। किसी के पास कोई रुग्ण शरीर है। किसी का कोई अंग ठीक नहीं है। किसी की आंखें जा चुकी हैं। किसी के कान ठीक नहीं हैं। किसी को कुछ है, किसी को कुछ है। शरीर तो हजार तरह की बीमारियों का घर है। शरीर से तृप्त तो कोई भी नहीं है। इसलिए कोई भी मन में वासना रख सकता है कि अच्छा है, पता चल जाए कि मैं शरीर नहीं हूं। मगर यह वासना खतरनाक हो सकती है। सिद्धांत की आड़ में यह वासना छिप जाए, तो आप कल्पना भी कर ले सकते हैं कि मैं शरीर नहीं हूं। लेकिन उससे कोई सार न होगा, कोई हल न होगा। आप कहीं पहुंचेंगे नहीं। कोई मुक्ति हाथ नहीं लगेगी। अनुभव - वासनारहित, कल्पनारहित और स्वयं का - उधार नहीं । ज्ञानीजन क्या कहते हैं, यह सुनने योग्य है। ज्ञानीजन क्या कहते हैं, यह समझने योग्य है। ज्ञानीजन क्या कहते हैं, यह करने योग्य है। लेकिन ज्ञानीजन क्या कहते हैं, यह मानने योग्य बिलकुल नहीं है। मानना तो तभी, जब करने से अनुभव में आ जाए। ज्ञानीजन क्या कहते हैं, उसे सुनना, हृदयपूर्वक सुनना। श्रद्धा से भीतर ले जाना। पूरा उसे आत्मसात कर लेना। उस खोज में भी लग जाना। वे क्या करने को कहते हैं, उसे साहसपूर्वक कर भी लेना । लेकिन मानना तब तक मत, जब तक अपना अनुभव न हो जाए। तब तक समझना कि मैं अज्ञानी हूं, और सिद्धांतों से अपने अज्ञान को मत ढांक लेना। और तब तक समझना कि मुझे कुछ पता नहीं है। ऐसा कृष्ण कहते हैं। कृष्ण से प्रेम है, इसलिए कृष्ण जो कहते हैं, ठीक ही कहते होंगे। लेकिन ठीक ही है, ऐसा तब तक मैं कैसे। हूं, तब तक मैं ना लूं। इसका यह अर्थ नहीं है कि उन पर अश्रद्धा करना । अश्रद्धा की कोई भी जरूरत नहीं है। पूरी श्रद्धा करना । लेकिन मान मत लेना। मेरी बात का फर्क आपको खयाल में आ रहा है? मानने का एक खतरा है कि आदमी चलना ही बंद कर देता है। वह कहता है, ठीक है। अक्सर मुझे ऐसा लगता है कि जो लोग जल्दी मान लेते हैं, लोग हैं, जो चलना नहीं चाहते; जिनकी सस्ती श्रद्धा हो जाती है। वे असल में यह कह रहे हैं कि ठीक है। कोई हमें अड़चन नहीं है। ठीक ही है। कहीं चलने की कोई जरूरत भी नहीं है। हम मानते ही हैं कि बिलकुल ठीक है। आदमी इनकार करके भी बच सकता है, हां करके भी बच सकता है। मेरे पास लोग आते हैं, तो मैं अनुभव करता हूं। उनको मैं कहता हूं कि ध्यान करो। वे कहते हैं, आप बिलकुल ठीक कहते हैं । लेकिन जब वे कह रहे हैं कि बिलकुल ठीक कहते हैं, तो वे यह | कहते हैं कि अब कोई करने की जरूरत नहीं है। हमें तो मालूम ही है। आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं। दूसरा आदमी आता है, वह कहता है कि नहीं, हमें आपकी बात | बिलकुल नहीं जंचती। वह भी यह कह रहा है कि बात जंचती ही नहीं, तो करें कैसे ? बड़े मजे की बात है। आदमी किस तरह की तरकीबें निकालता है! एक आदमी कहता है कि बिलकुल नहीं जंचती। मगर वह | जितनी तेजी से कहता है, उससे लगता है कि वह डरा हुआ है कि कहीं जंच न जाए, नहीं तो करना पड़े। भयभीत है। वह एक रुकावट खड़ी कर रहा है कि हमें जंचती ही नहीं, इसलिए करने का | कोई सवाल नहीं। एक दूसरा आदमी है, वह कहता है, हमें बिलकुल जंचती है। आपकी बात बिलकुल सौ टका ठीक है। लेकिन यह दूसरा आदमी भी यह कह रहा है कि सौ टका ठीक है। करने की कोई जरूरत ही नहीं, हमें मालूम ही है कि ठीक है। जो बात मालूम ही है, उसको और मालूम करके क्या करना है ! आदमी आस्तिक होकर भी धोखा दे सकता है खुद को, नास्तिक | होकर भी धोखा दे सकता है। दोनों धोखे से बचने का एक ही उपाय है, प्रयोग करना, अनुभव करना। और जो भी इस रास्ते पर चलते हैं, वे खाली हाथ नहीं लौटते | हैं | और जो भी इस रास्ते पर जाते हैं, वे जरूर मंजिल तक पहुंच | जाते हैं। क्योंकि यह रास्ता खुद के ही भीतर ले जाने वाला है। और यह मंजिल कहीं दूर नहीं, खुद के भीतर ही छिपी है। पांच मिनट बैठेंगे; कोई बीच से उठे न। पांच मिनट कीर्तन में लीन होकर सुनें, और फिर जाएं। कोई भी व्यक्ति बीच में उठे न । और जो मित्र बैठे हैं, वे भी बैठकर कीर्तन में साथ दें। 201
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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