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________________ 0 कौन है आंख वाला क्योंकि आत्मा का हमें पता ही नहीं है। हमें पता ही नहीं, हम कब जो कुछ हो रहा है, जो भी कर्म हो रहे हैं, वे प्रकृति से हो रहे उसको बेच देते हैं; कब हम उसको खो आते हैं। जिसका हमें पता | | हैं। और जो भी भाव हो रहे हैं, वह परमात्मा से हो रहे हैं, वह पुरुष ही नहीं, वह संपदा कब रिक्त होती चली जाती है। | से हो रहे हैं। चार पैसे के लिए आदमी बेईमानी कर सकता है, झूठ बोल पुरुष और प्रकृति दो तत्व हैं। सारे कर्म प्रकृति से हो रहे हैं और सकता है, धोखा दे सकता है। पर उसे पता नहीं कि धोखा, सारे भाव पुरुष से हो रहे हैं। इन दोनों को इस भांति देखते ही बेईमानी, झूठ बोलने में वह कुछ गंवा भी रहा है, वह कुछ खो भी | आपके भीतर का जो आत्यंतिक बिंदु है, वह दोनों के बाहर हो जाता रहा है। वह जो खो रहा है, उसे पता नहीं है। वह जो कमा रहा है | है। न तो वह भोक्ता रह जाता है और न कर्ता रह जाता है, वह देखने चार पैसे, वह उसे पता है। इसलिए कौड़ियां हम इकट्ठी कर लेते हैं | | वाला ही हो जाता है। एक तरफ देखता है प्रकृति की लीला और और हीरे खो देते हैं। एक तरफ देखता है भाव की, पुरुष की लीला। और दोनों के पीछे कृष्ण कहते हैं, वही आदमी अपने को नष्ट करने से बचा सकता सरक जाता है। वह तीसरा बिंदु हो जाता है, असली पुरुष हो जाता है, जिसको सनातन शाश्वत का थोड़ा-सा बोध आ जाए। उसके | है। तो कृष्ण कहते हैं, वह सच्चिदानंदघन को प्राप्त हो जाता है। बोध आते ही अपने भीतर भी शाश्वत का बोध आ जाता है। ऐसा जो देखता है, वही देखता है। बाकी सब अंधे हैं। जो हम बाहर देखते हैं, वही हमें भीतर दिखाई पड़ता है। जो हम | जीसस बहुत बार कहते हैं कि अगर तुम्हारे पास आंखें हों, तो भीतर देखते हैं, वही हमें बाहर दिखाई पड़ता है। बाहर और भीतर | देख लो। अगर तुम्हारे पास कान हों, तो सुन लो। दो नहीं हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जिनसे वे बोल रहे थे, उनके पास ऐसी ही आंखें थीं, जैसी अगर मुझे सागर की लहरों में सागर दिखाई पड़ जाए, तो मुझे | आपके पास आंखें हैं। जिनसे वे बोल रहे थे, वे कोई बहरे लोग मेरे मन की लहरों में मेरी आत्मा भी दिखाई पड़ जाएगी। अगर एक नहीं थे। कोई गूंगे-बहरों की भीड़ में नहीं बोल रहे थे। लेकिन वे बच्चे के जन्म और एक बूढ़े की मृत्यु में लहरें मालूम पड़ें और भीतर | | निरंतर कहते हैं कि आंखें हों, तो देख लो। कान हों, तो सुन लो। छिपे हए जीवन की झलक मझे आ जाए. तो मझे अपने बढापे. | क्या मतलब है उनका? अपनी जवानी, अपने जन्म, अपनी मौत में भी जीवन की शाश्वतता | | मतलब यह है कि हमारे पास आंखें तो जरूर हैं, लेकिन अब का पता हो जाएगा। इस बोध का नाम ही दृष्टि है। और इस बोध | तक हमने उनसे देखा नहीं। या जो हमने देखा है, वह देखने योग्य से ही कोई परम गति को प्राप्त होता है। नहीं है। हमारे पास कान तो जरूर हैं, लेकिन हमने उनसे कुछ सुना __ और जो पुरुष संपूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति से ही किए नहीं; और जो हमने सुना है, न सुनते तो कोई हर्ज न था। चूक जाते, हुए देखता है तथा आत्मा को अकर्ता देखता है, वही देखता है। तो कुछ भी न चूकते। न देख पाते, न सुन पाते जो हमने सुना और वही जो मैं आपसे कह रहा था। चाहे आप ऐसा समझें कि सब देखा है, तो कोई हानि नहीं थी। परमात्मा कर रहा है, तब भी आप अकर्ता हो जाते हैं। सांख्य कहता | | थोड़ा हिसाब लगाया करें कभी-कभी, कि जिंदगी में जो भी है, सभी कुछ प्रकृति कर रही है, तब भी आप अकर्ता हो जाते हैं। आपने देखा है, अगर न देखते, क्या चूक जाता? भला ताजमहल मल बिंद है, अकर्ता हो जाना। नान-डुअर, आप करने वाले देखे हों। न देखते, तो क्या चूक जाता? और जो भी आपने सुना नहीं हैं। किसी को भी मान लें कि कौन कर रहा है, इससे फर्क नहीं है, अगर न सुनते, तो क्या चूक जाता? पड़ता। सांख्य की दृष्टि को कृष्ण यहां प्रस्तावित कर रहे हैं। __ अगर आपके पास ऐसी कोई चीज देखने में आई हो, जो आप वे कह रहे हैं, जो पुरुष संपूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति से कहें कि उसे अगर न देखते, तो जरूर कुछ चूक जाता, और जीवन ही किए हुए देखता है तथा आत्मा को अकर्ता देखता है, वही देखता | | अधूरा रह जाता। और ऐसा कुछ सुना हो, कि उसे न सुना होता, है। और यह पुरुष जिस काल में भूतों के न्यारे-न्यारे भाव को एक तो कानों का होना व्यर्थ हो जाता। अगर कुछ ऐसा देखा और ऐसा परमात्मा के संकल्प के आधार पर स्थित देखता है तथा उस सुना हो कि मौत भी उसे छीन न सके और मौत के क्षण में भी वह परमात्मा के संकल्प से ही संपूर्ण भूतों का विस्तार देखता है, उस आपकी संपदा बनी रहे, तो आपने आंख का उपयोग किया, तो काल में सच्चिदानंदघन को प्राप्त होता है। | आपने कान का उपयोग किया, तो आपका जीवन सार्थक हुआ है। 361
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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