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________________ कि गीता दर्शन भाग-60 एक ही बात मेरे खयाल में आती है। खुद पर विश्वास करने की | जब एक दफे मैं मछुए के जाल में पकड़ गई, और मछुए ने मुझे कोई भी जरूरत नहीं है, हमें खुद पर विश्वास होता ही है। आप हैं, | | बाहर खींच लिया। बाहर खिंचते ही पता चला कि जिसमें मैं जी रही इतना पक्का है। ऐसा कोई भी आदमी नहीं है. जिसको यह शक हो थी. वह जल था। तडपने लगी प्यास से। कि मैं नहीं हूं। तो तुझे अगर जल का पता करना है, तो पूछने से पता नहीं क्या आपको कभी कोई ऐसा आदमी मिला, जिसको शक हो | | चलेगा। तू छलांग लगाकर किनारे पर थोड़ी देर तड़प ले। क्योंकि कि मैं नहीं हूं। इस शक के लिए भी तो खुद का होना जरूरी है।। | जल में ही हम पैदा हुए हैं। जल ही बाहर है और जल ही भीतर है। कौन करेगा शक? एक बात असंदिग्ध है कि मैं हूं। इसलिए इस मैं इसलिए कुछ पता नहीं चलता। दोनों तरफ जल है। ' हूं के साथ कुछ प्रयोग करने चाहिए, जो असंदिग्ध है। मछली जल ही है; और जल में ही पैदा हुई है; और जल में ही और जैसे-जैसे इस मैं हूं में प्रवेश होता जाएगा, वैसे-वैसे ही कल क्षीण होकर लीन हो जाएगी। आदमी और परमात्मा के बीच संदेह बिलकुल समाप्त हो जाएंगे। और जिस दिन मैं हूं की पूरी जल और मछली का संबंध है। हम उसी में हैं। इसलिए हम पूछते प्रतीति होती है, हाथ फैला दें, और परमात्मा का हाथ हाथ में आ |फिरते हैं, परमात्मा कहां है? खोजते फिरते हैं, परमात्मा कहां है? जाएगा। आंख खोलें, और उसकी आंख आपकी आंख के सामने और वह कहीं नहीं मिलता। होंगी। बोलें, और उसके कान आपके होंठों से लग जाएंगे। मछली को तो सुविधा है किनारे उतर जाने की, तड़प ले। हम कृष्ण कहते हैं, वह सब ओर से हाथ-पैर वाला है, क्योंकि सब | को वह भी सुविधा नहीं है। ऐसा कोई किनारा नहीं है, जहां परमात्मा को व्याप्त करके वही स्थित है। और संपूर्ण इंद्रियों के विषयों को न हो। इसलिए परमात्मा के बीच रहकर हम परमात्मा से प्यासे रह जानने वाला है, परंतु वास्तव में सब इंद्रियों से रहित है। जाते हैं। वही भीतर है, वही बाहर है। वह आपके बाहर ही है, ऐसा नहीं है; वह आपके भीतर भी है। कृष्ण कहते हैं, संपूर्ण इंद्रियों को जानने वाला भी वही है। भीतर हमारा और उसका संबंध ऐसे है, जैसे मछली और सागर का संबंध। | से वही आंख में से देख रहा है। बाहर वही दिखाई पड़ रहा है फूल सुना है मैंने, एक दफा एक मछली बड़ी मुसीबत में पड़ गई थी। में। भीतर आंख से वही देख रहा है। और सब इंद्रियों के भीतर से कुछ मछुए नदी के किनारे बैठकर बात कर रहे थे कि जल जीवन | जानते हुए भी सब इंद्रियों से रहित है। के लिए बिलकुल जरूरी है, जल के बिना जीवन नहीं हो सकता। | इसका थोड़ा प्रयोग करें, तो खयाल में आ जाए। क्योंकि यह मछली ने भी सुन लिया। मछली ने सोचा, लेकिन मैं तो बिना जल | | कोई तर्क-निष्पत्ति नहीं है। यह कोई तर्क का वक्तव्य होता, तो हम के ही जी रही हूं। यह जल क्या है? ये मछुए किस चीज की बात गणित और तर्क से इसको समझ लेते। ये सभी वक्तव्य कर रहे हैं? तो इसका अर्थ यह हुआ कि अभी तक मुझे जीवन का अनुभूति-निष्पन्न हैं। कोई पता ही नहीं चला! क्योंकि मछुए कहते हैं कि जल के बिना थोड़ा प्रयोग कर के देखें। थोड़ा आंख बंद कर लें और भीतर जीवन नहीं हो सकता। जल तो जीवन के लिए अनिवार्य है। | देखने की कोशिश करें। आप चकित होंगे, थोड़े ही दिन में आपको तो मछली पूछती फिरने लगी जानकार मछलियों की तलाश में।। | भीतर देखने की कला आ जाएगी। इसका मतलब यह हुआ कि उसने बड़ी-बड़ी मछलियों से जाकर पूछा कि यह जल क्या है ? | आंख जब नहीं है, बंद है, तब भी आप भीतर देख सकते हैं। उन्होंने कहा, हमने कभी सुना नहीं। हमें कुछ पता नहीं। अगर तुझे | कान बंद कर लें और थोड़े दिन भीतर सुनने की कोशिश करें। पता ही करना है, तो तू नदी की धार में बहती जा। सागर में सुनते | | एक घंटेभर कान बंद करके बैठ जाएं और सुनने की कोशिश करें हैं कि और बड़ी-बड़ी ज्ञानी मछलियां हैं, वे शायद कुछ बता सकें। भीतर। पहले तो आपको बाहर की ही बकवास सुनाई पड़ेगी। पहले तो मछली यात्रा करती हुई सागर तक पहुंच गई। वहां भी उसने | तो जो आपने इकट्ठा कर रखा है कानों में संग्रह, कान उसी को मुक्त मछलियों से पूछा। एक मछली ने उसे कहा कि हां, पूछने से कुछ | कर देंगे और वही कोलाहल सुनाई पड़ेगा। लेकिन धीरे-धीरे, सार नहीं है। और एक दफा यह पागलपन मुझे भी सवार हो गया | धीरे-धीरे-धीरे कोलाहल शांत होता जाएगा और एक ऐसी घड़ी था, कि जल क्या है ? सुना था कथाओं में, शास्त्रों में पढ़ा था, कि | आएगी कि आपको भीतर का नाद सुनाई पड़ने लगेगा। वह नाद जल क्या है? लेकिन उसका कोई पता नहीं था। पता तो तब चला | | बिना कान के सुनाई पड़ता है। फिर अगर कोई आपके कान 270
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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