________________
रामकृष्ण की दिव्य बेहोशी
समय ही नहीं मिलता, अवसर ही नहीं मिलता।
हमारी जिंदगी में दो काम हैं। जिसको हम जागना कहते हैं, वह जागना नहीं है। जिसको हम जागना कहते हैं, वह बाहर की चोट में हमारी चेतना का उत्तेजित रहना है। बाहर की चोट में चेतना का उत्तेजित रहना है। और जिसको हम नींद कहते हैं, वह भी नींद नहीं है। वह भी केवल थक जाने की वजह से है। बाहर की उत्तेजना अब हमको उत्तेजित नहीं कर पाती, हम थककर पड़ जाते हैं । जिसको हम नींद कहते हैं, वह थकान है। और जिसको हम जागरण कहते हैं, वह चोटों के बीच चुनाव, चुनौती के बीच हमारे भीतर होती प्रतिक्रिया है।
कृष्ण और बुद्ध और क्राइस्ट दूसरे ढंग से जागते हैं और दूसरे ढंग से सोते हैं। उनकी नींद थकान नहीं है; उनकी नींद विश्राम है। उनका जागरण बाहर का आघात नहीं है; उनका जागरण भीतर की स्फुरणा है । और जो व्यक्ति थककर नहीं सोया है, वह नींद में भी जागता रहता है। इसलिए कृष्ण ने कहा है कि योगी, जब सब सोते हैं, तब भी जागता है।
इसका यह मतलब नहीं है कि वह रातभर बैठा रहता है आंखें खोले। कई पागल वैसी कोशिश भी करते हैं कि रातभर आंखें खोले बैठे रहो। क्योंकि योगी रात सोता नहीं है। इसलिए नासमझ यह सोचने लगते हैं कि अगर रात न सोए, तो योगी बन जाएंगे ! या नींद कम करो-चार घंटा, तीन घंटा, दो घंटा - जितना कम सोओ, कम से कम उतने योगी हो गए।
कृष्ण का वैसा मतलब नहीं है। योगी भरपूर सोता है; आपसे ज्यादा सोता है; आपसे गहरा सोता है। लेकिन उसकी नींद शरीर में घटती है, क्षेत्र में घटती है; क्षेत्रज्ञ जागा रहता है। शरीर विश्राम में होता है, भीतर वह जागा होता है। वह रात करवट भी बदलता है, तो उसे करवट बदलने का होश होता है। रात उसकी बेहोश नहीं है।
और ध्यान रहे, उसकी रात बेहोश नहीं है – कृष्ण ने दूसरी बात नहीं कही है, वह भी मैं आपसे कहता हूं - आपका दिन भी बेहोश है। योगी रात में भी जागता है; भोगी दिन में भी सोता है। इसका यह मतलब नहीं है कि दिन में अगर आप घंटे, दो घंटे सो जाते हों, उससे मेरा मतलब नहीं है । भोगी दिन में भी सोता है, उसका मतलब यह है कि उसके भीतर की चेतना तो जागती ही नहीं। केवल आघात, चोट उसको जगाए रखती है।
अभी मनसविद कहते हैं कि जितना शोरगुल चल रहा है दुनिया में, बड़े शहरों में, उसकी वजह से लोग बहरे होते जा रहे हैं। और
सौ साल अगर इसी रफ्तार से काम आगे जारी रहा, तो सौ साल बाद शहरों में कान वाला आदमी मिलना मुश्किल हो जाएगा। | इतना आघात पड़ रहा है कि कान धीरे-धीरे जड़ हो जाएंगे। वैसे अभी भी आप बहुत कम सुनते हैं; और अच्छा ही है। अगर सब सुनें, जो हो रहा है चारों तरफ, तो आप पागल हो जाएंगे।
और इसलिए आज नए बच्चे हैं, तो रेडियो बहुत जोर से चलाते हैं। धीमी आवाज से चेतना में कोई चोट ही नहीं पड़ती, काफी शोरगुल हो । नए जो संगीत हैं, नए युवक-युवतियों के जो नृत्य हैं, वे भयंकर शोरगुल से भरे हैं। जितना शोरगुल हो उतना ही अच्छा, थोड़ा अच्छा लगता है। क्योंकि छोटे-मोटे शोरगुल से तो कोई चोट ही नहीं पैदा होगी। तेज चुनौती चाहिए, तेज आघात चाहिए, तो थोड़ा-सा रस मालूम होता है कि पैदा हो रहा है। लेकिन यह कब तक चलेगा?
पश्चिम में उन्होंने नए रास्ते निकाले हैं। केवल चोट से भी काम नहीं चलता, तो बहुत तरह के प्रकाश लगा लेते हैं। प्रकाश बदलते रहते हैं तेजी से । बहुत जोर से शोर मचता रहता है। कई तरह के नाच, कई तरह के गीत चलते रहते हैं। एक बिलकुल विक्षिप्त अवस्था हो जाती है। तब घंटेभर उस विक्षिप्त अवस्था में रहकर | किसी आदमी को लगता है, कुछ जिंदगी है; कुछ जीवन का | अनुभव होता है !
हम इतने मर गए हैं कि जब तक बहुत चोट न हो, तो जीवन का भी कोई अनुभव नहीं होता। धीमे स्वर तो हमें सुनाई ही न पड़ेंगे। और जीवन के नैसर्गिक स्वर सभी धीमे हैं। वे हमें सुनाई नहीं पड़ेंगे। रात का सन्नाटा हमें सुनाई नहीं पड़ेगा। हृदय की अपनी धड़कन हमें सुनाई नहीं पड़ेगी।
आपने कभी अपने खून की चाल की आवाज सुनी है ? वह बहुत धीमी है; वह सुनाई नहीं पड़ेगी। लेकिन आवाज तो हो रही है। बक मिनिस्टर फुलर ने लिखा है कि मैं पहली दफा एक ऐसे भवन में गया, एक विज्ञान की प्रयोगशाला में, जो पूर्णरूपेण साउंड-प्रूफ थी, जहां कोई आवाज बाहर से भीतर नहीं जा सकती थी । लेकिन मुझे भीतर दो तरह की आवाजें सुनाई पड़ने लगीं। तो मुझे जो | वैज्ञानिक दिखाने ले गया था, उससे मैंने पूछा कि यह क्या बात है! | आप तो कहते हैं, एब्सोल्यूट साउंड - प्रूफ है। लेकिन यहां दो तरह की आवाजें आ रही हैं !
तो वैज्ञानिक हंसने लगा। उसने कहा, वे आवाजें बाहर से नहीं आ रही हैं, वह आपके खून की चाल की आवाज है। आपका हृदय
227