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________________ ॐ गीता दर्शन भाग-60 झांकता है। कि राबिया, क्या तू पागल हो गई? शक तो हमें बहुत बार होता था मनुष्य के पास अपना कोई व्यक्तित्व नहीं है। वह आधा-आधा | | तेरी बातें सुनकर कि तू पागल हो गई है। अब तूने यह क्या किया है; अधूरा-अधूरा है; सीढ़ी पर लटका हुआ है; त्रिशंकु की भांति | है! यह क्या खेल, नाटक कर रही है? कहां भागी जा रही है? और है। इसलिए जो मनुष्य साधना नहीं करता, वह असाधारण है। जो | यह पानी और यह मशाल किसलिए? मनुष्य साधना में नहीं उतरता, वह असाधारण है। नरक में नहीं तो राबिया ने कहा कि इस पानी में मैं तुम्हारे नर्क को डुबाना उतरता, समझ में आती है बात। स्वर्ग में नहीं उतरता, समझ में चाहती हूं और इस मशाल से तुम्हारे स्वर्ग को जलाना चाहती हूं। आती है। अगर आप साधना में नहीं उतरते, तो आप चमत्कारी हैं। | और जब तक तुम स्वर्ग और नरक से न छूट जाओ, तब तक क्योंकि आपका होना ही असंतोष है। और अगर आपको इस तुम्हारा परमात्मा से कोई मिलना नहीं हो सकता। असंतोष से भी साधना का खयाल पैदा नहीं होता, तो आश्चर्य है। | __ अब हम सूत्र को लें। जगत में बड़े से बड़ा आश्चर्य यह है कि कोई मनुष्य हो और | | और हे अर्जुन, श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दंभाचरण का साधक न हो। यह बड़े से बड़ा आश्चर्य है। स्वर्ग में देवता होकर | अभाव, प्राणिमात्र को किसी प्रकार भी न सताना, क्षमा-भाव, . कोई साधक हो, यह आश्चर्य की बात होगी। नरक में होकर कोई मन-वाणी की सरलता, श्रद्धा-भक्ति सहित गुरु की सेवा, साधक हो, यह भी आश्चर्य की बात होगी। मनुष्य होकर कोई बाहर-भीतर की शुद्धि, अंतःकरण की स्थिरता, मन और इंद्रियों साधक न हो, यह बड़े आश्चर्य की बात है। क्योंकि आपके होने में | | सहित शरीर का निग्रह तथा इस लोक और परलोक के संपूर्ण भोगों असंतोष है। और असंतोष से कोई कैसे तृप्त हो सकता है! साधना | में आसक्ति का अभाव और अहंकार का भी अभाव एवं जन्म, का इतना ही मतलब है कि जैसा मैं हूं, उससे मैं राजी नहीं हो | | मृत्यु, जरा और रोग आदि में दुख और दोषों का बारंबार दर्शन सकता; मुझे स्वयं को बदलना है। करना, ये सब ज्ञान के लक्षण हैं। इसलिए मनुष्य को चौराहा कहा है ज्ञानियों ने। स्वर्ग से भी लौट कौन है ज्ञानी? क्योंकि कल कृष्ण ने कहा कि ज्ञानी जान लेता है आना पड़ेगा। जब पुण्य चुक जाएंगे, तो सुख से लौट आना पड़ेगा। | तत्व से इस बात को कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ अलग हैं। तो जरूरी है, और जब पाप चुक जाएंगे, तो नरक से लौट आना पड़ेगा। अब हम समझ लें कि ज्ञानी कौन है? कौन जान पाएगा इस भेद को? और मनुष्य की योनि से तीन रास्ते निकलते हैं। एक, दुख अर्जित | | कौन इस भेद को जानकर अभेद को उपलब्ध होगा? तो अब ज्ञानी कर लें, तो नरक में गिर जाते हैं; सुख अर्जित कर लें, तो स्वर्ग में | | के लक्षण हैं। एक-एक लक्षण पर खयाल कर लेना जरूरी है। चले जाते हैं। लेकिन दोनों ही क्षणिक हैं, और दोनों ही छूट जाएंगे। श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव-शुरू बात, क्योंकि ज्ञान के जो भी अर्जित किया है, वह चुक जाएगा, खर्च हो जाएगा। ऐसी कोई | | साथ तत्क्षण श्रेष्ठता का भाव पैदा होता है कि मैं श्रेष्ठ हूं, दूसरे संपदा नहीं होती, जो खर्च न हो। कमाई खर्च हो ही जाएगी। | निकृष्ट हैं; मैं जानता हूं, दूसरे नहीं जानते हैं; मैं ज्ञानी हूं, दूसरे नरक भी चक जाएगा, स्वर्ग भी चक जाएगा, जब तक कि यह अज्ञानी हैं। ज्ञान के साथ जो सबसे पहला रोग, जिससे बचना खयाल न आ जाए कि एक तीसरा रास्ता और है, जो कमाने का | जरूरी है, वह श्रेष्ठता का अहंकार है। नहीं, कुछ अर्जित करने का नहीं, बल्कि जो भीतर छिपा है, उसको ब्राह्मण की अकड़ हम देखते हैं। अब उसकी कम होती जा रही उघाड़ने का है। स्वर्ग भी कमाई है, नरक भी। और आपके भीतर है, क्योंकि चारों तरफ से उस पर हमला पड़ रहा है। नहीं तो ब्राह्मण जो परमात्मा छिपा है, वह कमाई नहीं है; वह आपका स्वभाव है। की अकड़ थी। ब्राह्मण की शक्ल ही देखकर कह सकते हैं कि वह वह मौजूद ही है। जिस दिन आप स्वर्ग और नर्क की तरफ जाना ब्राह्मण है। उसके नाक का ढंग, उसके आंख का ढंग, उसके चेहरे बंद करके स्वयं की तरफ जाना शुरू कर देते हैं, उस दिन फिर | का रोब! चाहे वह भीख मांगता हो, लेकिन फिर भी ब्राह्मण लौटने की कोई जरूरत नहीं है। पहचाना जा सकता है कि वह ब्राह्मण है। उसकी आंख, उसका ___ मुसलमान फकीर औरत हुई है, राबिया। एक दिन लोगों ने देखा | श्रेष्ठता का भाव, एक अरिस्टोक्रेसी, एक गहरा आभिजात्य, भीतर कि वह बाजार में भागी जा रही है। उसके एक हाथ में पानी का एक | मैं श्रेष्ठ हूं! चाहे वह नंगा फकीर हो, चाहे कपड़े फटे हों, चाहे हाथ कलश है और एक हाथ में एक जलती हुई मशाल है। लोगों ने कहा में भिक्षा का पात्र हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन भीतर 230/
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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