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________________ FO रामकृष्ण की दिव्य बेहोशी हो सकती है। क्योंकि उसे कभी खयाल ही नहीं था कि शूद्र के अतिरिक्त कुछ नहीं; ऊंचे-नीचे का सवाल नहीं है; अकड़ने की कोई बात नहीं होने का उपाय है। अब उसे पता है; अब आशा खुली है। अब उसे है। सच तो, अगर ठीक से समझें, तो थोड़ा दीन होने की बात है। पता है कि शूद्र होना जरूरी नहीं है, वह ब्राह्मण भी हो सकता है। कारण यह है कि देव-योनि का अर्थ है कि जहां सुख ही सुख है। शूद्र होना अनिवार्य नहीं है। अब गांव की सड़क ही साफ करना और जहां सुख ही सुख है, वहां मूर्छा घनी हो जाती है। दुख मूर्छा | | जिंदगी की कोई अनिवार्यता नहीं है; अब वह राष्ट्रपति भी हो को तोड़ता है। दुख मुक्तिदायी है। पीड़ा से छूटने का मन होता है। सकता है। आशा का द्वार खुल गया है। सुख से छूटने का मन ही नहीं होता। अब वह सड़क पर बुहारी तो लगा रहा है, लेकिन बड़े दुख से। आप भी संसार से छूटना चाहते हैं, तो क्या इसलिए कि सुख | वहीं वह पांच सौ साल पहले भी बुहारी लगा रहा था, लेकिन तब से छूटना चाहते हैं ? दुख से छूटना चाहते हैं। दुख से छूटना चाहते | कोई दुख नहीं था। क्योंकि दुख इतना मजबूत था, उसके बाहर जाने हैं, इसलिए संसार से भी छूटना चाहते हैं। अगर कोई आपको | की कोई आशा नहीं थी, कोई उपाय नहीं था, इसलिए बात ही खतम तरकीब बता दे कि संसार में भी रहकर और दुख से छूटने का उपाय हो गई थी। है, तो आप मोक्ष का नाम भी न लेंगे। आप भूलकर फिर मोक्ष की नरक में कोई साधना नहीं करता, और स्वर्ग में भी कोई साधना बात न करेंगे। फिर आप कृष्ण वगैरह को कहेंगे कि आप जाओ नहीं करता। क्योंकि नरक में दुख इतना गहन है और आशा का कोई मोक्ष। हम यहीं रहेंगे। क्योंकि दुख तो छोड़ा जा सकता है, सुख उपाय नहीं है, कि आदमी उस दुख से ही राजी हो जाता है। जब मिल सकता है, फिर मोक्ष की क्या जरूरत है? दुख आखिरी हो, तो हम राजी हो जाते हैं। जब तक आशा रहती संसार को छोड़ने का सवाल ही इसलिए उठता है कि अगर हम है, तब तक हम लड़ते हैं। दुख को छोड़ना चाहते हैं, तो सुख को भी छोड़ना पड़ेगा। वे दोनों ___ इसे थोड़ा समझ लें। जब तक आशा रहती है, तब तक हम साथ जुड़े हैं। | लड़ते हैं। और जहां तक आशा रहती है, वहां तक हम लड़ते हैं। संसार में सुख और दुख मिश्रित हैं। सब सुखों के साथ दुख जुड़ा | | और जब आशा टूट जाती है, हम शांत होकर बैठ जाते हैं। लड़ाई हुआ है। सुख पकड़ा नहीं कि दुख भी पकड़ में आ जाता है। आप | खतम हो गई। सुख को लेने गए और दुख की जकड़ में फंस जाते हैं। सुख चाहा स्वर्ग में भी कोई साधना नहीं करता है, क्योंकि सुख से छूटने का और दुख के लिए दरवाजा खुल जाता है। | खयाल ही नहीं उठता। सुख से छूटने का कोई सवाल ही नहीं है। स्वर्ग या देव-योनि का अर्थ है, जहां सुख ही सुख है। जहां सुख मनुष्य दोनों के बीच में है। मनुष्य दोनों है, नरक भी और स्वर्ग ही सुख है, वहां छोड़ने का खयाल ही न उठेगा। इसलिए देवता भी। मनुष्य आधा नरक और आधा स्वर्ग है। और दोनों मिश्रित है। गुलाम हो जाते हैं, छोड़ने का खयाल ही नहीं उठता। वहां दुख भी सघन है और सुख की आशा भी। और हर सुख के नरक से भी मुक्ति नहीं हो सकती और स्वर्ग से भी मुक्ति नहीं | बाद दुख मिलता है, यह अनुभूति भी है। इसलिए मनुष्य चौराहा हो सकती। जिन्होंने ये वक्तव्य दिए हैं. उन्होंने बड़ी गहरी खोज की है। उसके नीचे नरक है, उसके ऊपर स्वर्ग है। स्वर्ग में आदमी सख है। क्योंकि नरक में दख ही दख है. और अगर दख ही दख हो, तो से राजी हो जाता है, नरक में दुख से राजी हो जाता है। मनुष्य की आदमी दुख का आदी हो जाता है। यह थोड़ा समझ लें। अवस्था में किसी चीज से कभी राजी नहीं हो पाता। मनुष्य असंतोष अगर दुख ही दुख जीवन में हो, सुख की कोई भी अनुभूति न | है। वह असंतुष्ट ही रहता है। कुछ भी हो, संतोष नहीं होता। हो, तो आदमी दुख का आदी हो जाता है। और जहां सुख का कोई | इसलिए साधना का जन्म होता है। अनुभव ही न हो, वहां सुख की आकांक्षा भी धीरे-धीरे तिरोहित हो | जहां असंतोष अनिवार्य हो, कोई भी स्थिति हो। आप झोपड़े में जाती है। सुख की आकांक्षा वहीं पैदा होती है, जहां आशा हो। हों, तो दुखी होंगे; और आप महल में हों, तो दुखी होंगे। आपका इसलिए दुनिया में जितनी सुख की आशा बढ़ती है, उतना दुख होना, मनुष्य का होना ही ऐसा है कि वह तृप्त नहीं हो सकता। बढ़ता जाता है। पांच सौ साल पीछे शूद्र इतने ही दुख में था, जितना अतृप्ति वहां बनी ही रहेगी। उसके होने के ढंग में ही उपद्रव है। वह आज दुख में है। शायद ज्यादा दुख में था। लेकिन दुखी नहीं था, बीच की कड़ी है। आधा उसमें स्वर्ग भी झांकता है, आधा नरक भी 229
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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