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________________ गीता दर्शन भाग-6 सत्य, कितना परमात्मा और कोई सबूत बुद्धिमानी का नहीं है। मैं तो आपसे कहूंगा, जिनको बुद्धिमान रहना हो, मजे से बुद्धिमान रहें। लेकिन जिनको जीवन का रस जानना हो, उन्हें सस्ती बुद्धिमानी से बचना जरूरी है। हां, मैं यह नहीं कहता कि आप मेरी बात मानकर नाचते-कूदते रहें । वह बुद्धिमानी नहीं है। मैं आपसे यह कहता हूं कि मैं जो कह रहा हूं, उसे करके देख लें; और अगर लगता हो कि कुछ है, तो आगे बढ़ जाएं। और लगता हो, कुछ नहीं है, तो छोड़ दें। कौन रोकता है आपको छोड़ने से ? लेकिन छोड़ने के पहले परख लेना जरूरी है। और किसी भी चीज में कुछ नहीं है, ऐसी धारणा बनाने के पहले प्रवेश करना जरूरी है। अनुभव के पहले जो निर्णय लेता है, वह अंधा है। एक मित्र ने पूछा है कि प्रभु को पा लेने बाद मान लिया कि मन को शांति मिल जाएगी और मान लिया कि आनंद भी मिल जाएगा, लेकिन फिर हम करेंगे क्या ? दमी की भी चिंताएं बड़ी अदभुत हैं। वैसे यह चिंता आ विचारणीय है। निश्चित ही, करने को आपके लिए कुछ भी न बचेगा। मगर यह तो ऐसे ही है, जैसे कोई बीमार पूछे कि मान लिया कि टी. बी. ठीक हो जाएगी, कैंसर ठीक हो जाएगा, सब बीमारियां चली जाएंगी, फिर हम करेंगे क्या? क्योंकि बीमारी के लिए कुछ काम में लगे हैं। दवा लाते हैं; चिकित्सक के पास जाते हैं; अस्पताल में भर्ती होते हैं। और सब ठीक हो गया, तो फिर ? फिर हम करेंगे क्या ? लेकिन करना क्या जरूरी है? और करने से मिलता क्या है ? न करने की अवस्था ही तो परम लक्ष्य है। ऐसी अवस्था पा लेना, जहां करने को कुछ भी न बचे, वही तो परम तृप्ति है। तृप्ति का अर्थ ही है कि उसके बाद करने को कुछ भी न बचे । अतृप्ति में करना बाकी रहता है, क्योंकि अतृप्ति धक्का देती है कि करो, ताकि मैं तृप्त हो सकूं। लेकिन जब कोई सच में ही तृप्त हो जाता है, तो करने को कुछ भी नहीं बचता। अगर आप डरते कि करने को कुछ भी न बचेगा और बिना किए रहने वाले आप नहीं हैं, तो परमात्मा को मत खोजें। तब तो परमात्मा से बचें। और कहीं अगर मिल भी जाए अपने आप, भाग खड़े हों; लौटकर मत देखें। लेकिन करने से क्या पा रहे हैं? और इसका यह अर्थ नहीं है कि जब बीमारियां नहीं रह जातीं, तो स्वास्थ्य कोई अभाव है। स्वास्थ्य की अपनी भाव - दशा है। लेकिन करने की प्रक्रिया बदल जाती है। बीमार आदमी कुछ पाने के लिए करता है। स्वस्थ आदमी कुछ है उसके भीतर, उस आनंद, अहोभाव में करता है। एक बच्चे को कुछ भी पाना नहीं है, लेकिन नाच रहा है सूरज की रोशनी में। यह भी कृत्य है। लेकिन इस कृत्य में और एक नर्तक के जो कि स्टेज पर नाच रहा है, फर्क है। नर्तक नाच रहा है कि कुछ मिलेगा नाचने के बाद, पुरस्कार । बच्चा नाच रहा है, क्योंकि भीतर ऊर्जा है। ऊर्जा प्रकट होना चाहती है। बच्चा नाच रहा है आनंद से, कुछ पाने के लिए नहीं । नाचना अपने आप में पर्याप्त है। जैसे ही कोई व्यक्ति परमात्मा के निकट पहुंचने लगता है, फल की आकांक्षा से कृत्य समाप्त हो जाते हैं। लेकिन कृत्य समाप्त नहीं हो जाते। क्योंकि बुद्ध भी चलते दिखाई पड़ते हैं, परमात्मा को पाने के बाद | बोलते दिखाई पड़ते हैं, उठते हैं, बैठते हैं। बहुत कुछ करते दिखाई पड़ते हैं। हालांकि करने का बुखार चला गया। फीवरिश नहीं है अब कोई करना। जिस दिन बुद्ध मरते हैं, उस दिन वे छाती नहीं पीटते कि अब मैं मर जाऊंगा, तो मेरा किया हुआ अधूरा रह गया। कुछ अधूरा नहीं है। क्योंकि जो भी आनंद से हो | रहा था, वह हो रहा था। नहीं हो रहा, तो नहीं हो रहा। कोई कृष्ण भी चुप नहीं बैठ जाते । कोई महावीर चुप नहीं बैठ जाते। कोई जीसस चुप नहीं बैठ जाते। परमात्मा को पा लेने के बाद भी कृत्य जारी रहता है। कृत्य आपका नहीं रह जाता; परमात्मा का हो जाता है। इसलिए दुख आपका नहीं रह जाता, चिंता आपकी नहीं रह जाती; जैसे सब उसने सम्हाल लिया। इसे ऐसा समझें कि हम उस तरह के लोग हैं...। नदी में दो तरह | की नाव चल सकती है। एक नाव तो, जिसको हाथ की पतवार से चलाना पड़ता है। तो फिर पतवार हमें हाथ में पकड़कर श्रम उठाना पड़ता है। थकेंगे और लड़ेंगे नदी से । रामकृष्ण ने कहा है कि एक और तरह की नाव भी है, वह है पाल वाली नाव। उसमें पतवार नहीं चलानी पड़ती, हवा का रुख | देखकर नाव छोड़ देनी पड़ती है। फिर हवा उसे ले जाने लगती है। सांसारिक आदमी पतवार वाली नाव जैसा है। आध्यात्मिक 174
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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