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आधुनिक मनुष्य की साधना
व्यक्ति पाल वाली नाव जैसा है। उसने परमात्मा की हवाओं पर छोड़ दिया, अब वह ले जाता है। अब उसको पतवार नहीं चलानी पड़ती। हालांकि पतवार चलाने का जो पागलपन किसी को सवार हो, वह जरूर पूछेगा कि अगर पाल लगा लें नाव में और हवाएं ले जाने लगें, तो हम क्या करेंगे? क्योंकि हम तो यह खेते हैं पतवार से । यही तो हमारा जीवन है।
लेकिन उसे पता ही नहीं कि पाल वाली नाव का नाविक किस शांति से सो रहा है, या बांसुरी बजा रहा है, या खुले आकाश को देख रहा है, या सूरज के साथ एक मौन चर्चा में संलग्न है।
काम का बोझ हट गया, अब जीवन का आनंद सरल है। काम के बोझ से ही तो हम मरे जा रहे हैं, लेकिन मित्र पूछते हैं कि फिर हम क्या करेंगे?
एक और बात ध्यान रखनी जरूरी है कि जब परमात्मा मिलेगा, तो आप होंगे ही नहीं । आप उसके पहले ही विदा हो गए होंगे। इसलिए इस चिंता में मत पड़ें कि आप क्या करेंगे। जब तक आप हैं, तब तक तो वह मिलेगा भी नहीं ।
पर इससे भी उनके चित्त को राहत नहीं मिलती। इससे उनको और कष्ट होता है।
आगे उन्होंने पूछा है, और फिर आप कहते हैं कि आदमी मिट जाएगा, तब परमात्मा मिलेगा! तो जब हमें मिलना ही नहीं है वह, तो मेहनत क्यों करें ?
से कहते हैं नकारात्मक चिंतन की प्रक्रिया । अगर कोई
इ कहे ऐसी मिल जाएगी कि कुछ
को न बचेगा, तो तृप्ति की फिक्र नहीं होती। आपको यह लगता है, फिर करने को नहीं बचेगा, तो हम क्या करेंगे?
अगर कोई कहता है कि आप मिट जाओगे, तब परमात्मा मिलेगा, तो परमात्मा की भी फिक्र छूट गई। फिर तो हमें लगता है, जब हम ही मिट जाएंगे, तो फिर सार भी क्या है ऐसे परमात्मा से मिलने में !
लेकिन आपके होने में क्या सार है? और आपने होकर क्या पाया है? अभी भी, जो कभी भी आपके जीवन में कोई थोड़ी-बहुत आनंद की किरण मिली हो, वह भी तभी मिली है, जब आप मिट
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गए हैं। किसी के प्रेम में, किसी की मित्रता में, या सुबह खिलते हुए फूल के सौंदर्य को देखकर, या कभी रात आकाश तारों से भरा हो और उसमें लीन होकर अगर आपको कभी थोड़ी-सी झलक मिली है सुख की, तो वह भी इसीलिए मिली है कि आप उस क्षण में खो गए थे। आप नहीं थे।
जीवन में जो भी उतरता है महान, वह तभी उतरता है, जब आप नहीं होते। पर इसका यह मतलब नहीं है कि आप सच में ही नहीं होंगे।
अध्यात्म की भाषा समझने में कई बार तकलीफ होती है, क्योंकि वह भाषा शब्दों का बड़ा मौलिक प्रयोग करती है। जब कहा जाता है कि आप नहीं होंगे, तो उसका मतलब है कि केवल आपका जो | मिथ्या व्यक्तित्व है, जो फाल्स सेल्फ है, जो झूठा आवरण है, वह नहीं होगा। आपका जो गहरा केंद्र है, वह तो होगा ही, क्योंकि वह तो परमात्मा ही है।
यह ऐसा ही समझें। मैंने सुना है कि ऐसा हुआ, एक जर्मन | जासूस को इंगलैंड भेजा गया दूसरे महायुद्ध के पहले। पांच वर्ष पहले भेज दिया गया, ताकि पांच वर्ष में वह इंगलैंड में रम जाए। | ठीक अंग्रेजों जैसा जीने लगे, उठने लगे, बैठने लगे। अंग्रेजी ऐसी बोलने लगे जैसे कि मातृभाषा हो । जर्मन प्रभाव बिलकुल समाप्त हो जाए - आवाज में, ध्वनि में, आंखों में, चलने में। क्योंकि जर्मन और ढंग से चलता है, अंग्रेज और ढंग से चलता है। हर जाति का अपना व्यक्तित्व है।
तो पांच साल पहले उसे भेज दिया गया। और पांच साल उसने सब तरह के प्रयोग किए और अपने को बिलकुल स्वाभाविक अंग्रेज बना लिया। फिर युद्ध समाप्त हो गया और पूरे दस साल | इंगलैंड में रहने के बाद वह जर्मनी वापस लौटा।
पैदा जर्मन हुआ था, लेकिन दस साल में अभ्यास से अंग्रेज हो गया। जब घर लौटा, तो बड़ी अड़चन शुरू हुई। क्योंकि यह जो अंग्रेजियत उसने सीख ली थी, अब यह वापस अपने जर्मन परिवार में बाधा बनने लगी। घर के लोग उससे कहते कि नकली को छोड़ | क्यों नहीं देता ? है तो तू जर्मन । तो फिर से बोल अपनी मातृभाषा, जैसी तू बोलता था । और वैसे ही उठ, वैसे ही बैठ, वैसा ही व्यवहार कर, जैसा तू करता था। जैसा हमने तुझे बचपन में जाना, उसकी मां कहती। उसकी पत्नी कहती कि जैसा मैं तुम्हें जानती थी | जाने के पहले, ठीक वैसा ।
पर वह आदमी कहता कि जरा ठहरो । दस साल अभ्यास करके यह नकली भी स्वाभाविक हो गया है। इसे हटाऊंगा, मिटाऊंगा,
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