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पुरुष में थिरता के चार मार्ग
अब जिन मित्र ने यह सवाल पूछा है कि महावीर और बुद्ध ने अहिंसा की बात की और कृष्ण तो हिंसा की बात कर रहे हैं, इनको कैसे भगवान मानें, वे यहां बैठे हैं। वे बिलकुल नहीं सुन पा रहे होंगे। उनके प्राण बड़े बेचैन होंगे कि बड़ी मुसीबत हो गई। वे सुन ही नहीं सकते। क्योंकि सुनते समय उनके भीतर तौल चल रही है, भगवान है ? कृष्ण भगवान हैं कि नहीं? क्योंकि वे हिंसा की बात कह रहे हैं। कैसे भगवान हो सकते हैं!
तुमसे पूछ कौन रहा है ? तुम्हारा मत मांगा भी नहीं गया है। और कृष्ण कोई तुम्हारे वोट के कारण भगवान होने को नहीं हैं। तुम चिंता क्यों कर रहे हो? तुम वोट नहीं दोगे, तो वे भगवान नहीं रह जाएंगे, ऐसा कुछ नहीं है। दुनिया में सब लोग इनकार कर दें, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। और सब लोग स्वीकार कर लें, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। कृष्ण के होने में कोई अंतर नहीं आता इसके कि कौन क्या मानता है। वह तुम्हारी अपनी झंझट है। उससे उनका कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन तुम परेशान हो ।
अब उन्होंने अहिंसा की बात नहीं कही, हिंसा की बात कही; तुम अपने अहिंसा के सिद्धांत को पकड़े बैठे हो। वह सिद्धांत तुम्हें सुन न देगा। वह सिद्धांत बीच में दीवाल बन जाएगा। उस सिद्धांत की वजह से, जो कहा जा रहा है, उसके तुम कुछ और मतलब निकालोगे, जो कहे ही नहीं गए हैं। तुम सब विकृत कर लोगे। तुम अपनी बुद्धि को बीच में डाल दोगे और गुरु ने जो कहा है, उस सब को नष्ट कर दोगे ।
पास बैठना चुप होकर, मौन होकर ! इसलिए बहुत बार पुरानी परंपरा तो यही थी कि शिष्य गुरु के पास जाए, तो साल दो साल कुछ पूछे न; सिर्फ चुप बैठे; सिर्फ बैठना सीखे। बैठना सीखे।
सूफियों में कहा जाता है कि पहले बैठना सीखो। गुरु के पास आओ, बैठना सीखो, आना सीखो। अभी जल्दी कुछ ज्ञान की नहीं है। ज्ञान कोई इतनी आसान बात भी नहीं है कि लिया- दिया और घर की तरफ भागे। कोई इंस्टैंट एनलाइटेनमेंट नहीं है। काफी हो सकती है, बनाई एक क्षण में और पी ली ! कोई समाधि, कोई ज्ञान क्षण में नहीं होता। सीखना होगा।
सूफी अक्सर सालों बिता देते हैं; सिर्फ गुरु के पास झुककर बैठे रहते हैं। प्रतीक्षा करते हैं कि गुरु पहले पूछे कि कैसे आए? क्या चाहते हो? कभी-कभी वर्षों बीत जाते हैं। वर्षों कोई साधक रोज आता है नियम से, अपनी जगह आंख बंद करके शांत बैठ जाता है । गुरु को कभी लगता है, तो कुछ कहता है। नहीं लगता, तो नहीं
| कहता। दूसरे आने-जाने वाले लोगों से बात करता रहता है, शिष्य बैठा रहता है।
वर्षों सिर्फ बैठना होता है। जिस दिन गुरु देखता है कि बैठक जम गई। सच में शिष्य आ गया और बैठ गया। अब उसके भीतर कुछ भी नहीं है । उपासना हो गई।
अब वह बैठा है। सिर्फ पास है, जस्ट नियर । अब कुछ दूरी नहीं है, न अहंकार की, न विचारों की, न मत-मतांतर की, न | वाद-विवाद की, न कोई शास्त्र की। अब कुछ नहीं है। बस,' सिर्फ | बैठा है। जैसे एक मूर्ति रह गई, जिसके भीतर अब कुछ नहीं है, बाहर कुछ है। अब खाली घड़े की तरह बैठा है। उस दिन गुरु डाल देता है जो उसे डालना है, जो कहना है। उस दिन उंडेल देता है अपने को । उस दिन नदी उतर जाती है घड़े में ।
चौथे मार्ग पर बैठना सीखना होगा, मौन होना सीखना होगा, प्रतीक्षा सीखनी होगी, धैर्य सीखना होगा; और किसी जीवित गुरु की तलाश करनी होगी।
संसार - सागर को
ऐसे सुनने के परायण हुए भी मृत्युरूप | निस्संदेह तर जाते हैं । हे अर्जुन, यावन्मात्र जो कुछ भी स्थावरजंगम वस्तु उत्पन्न होती है, उस संपूर्ण को तू क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही उत्पन्न जान ।
सभी विचार के पीछे कृष्ण बार-बार दोहरा देते हैं, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ | वह जानने वाला और जो जाना जाता है वह । इन दो को वे बार-बार दोहरा देते हैं । कि जो भी पैदा होता है, वह सब क्षेत्र है। बनता है, मिटता है, वह सब क्षेत्र है। और वह जो न बनता है, न मिटता है, न पैदा होता है, जो सिर्फ देखता है, जो सिर्फ दर्शन मात्र की शुद्ध क्षमता है, जो केवल ज्ञान है, जो मात्र बोध है, जो प्योर | कांशसनेस है, जो शुद्ध चित्त है— वही पुरुष है, वही परम मुक्ति है।
एक मित्र ने पूछा है कि कृष्ण बहुत बार पुनरुक्ति करते मालूम होते हैं गीता में । फिर वही बात, फिर वही बात, फिर वही बात । | ऐसा क्यों है? क्या लिपिबद्ध करने वाले आदमी ने भूल की है? या कि कृष्ण जानकर ही पुनरुक्ति करते हैं? या कि अर्जुन बहुत मंद बुद्धि है कि बार-बार कहो, तभी उसकी समझ में आता है? या | कृष्ण भूल जाते हैं बार-बार, फिर वही बात कहने लगते हैं?
विचारणीय है। ऐसा कृष्ण के साथ ही नहीं है। बुद्ध भी ऐसा ही | बार-बार दोहराते हैं। क्राइस्ट भी ऐसा ही बार-बार दोहराते हैं। मोहम्मद भी ऐसा ही बार-बार दोहराते हैं। इस दोहराने में जरूर कुछ बात है।
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