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________________ दुख से मुक्ति का मार्गः तादात्म्य का विसर्जन लेना है, जो शुद्ध है। महावीर ने उसे केवल - ज्ञान कहा है। जहां ज्ञाता का भी खयाल नहीं रह जाता, सिर्फ जानने की शुद्धतम घटना रह जाती है। जहां मैं सिर्फ जानता हूं, और कुछ भी नहीं करता । एक घड़ीभर के लिए रोज चौबीस घड़ी में से, इस भीतर की | खोज के लिए निकाल लें। तेईस घंटे दे दें शरीर के लिए और एक घंटा बचा लें अपने लिए। समझती हैं या नहीं? स्वभावतः आइंस्टीन की पत्नी को लोग पूछ लेते थे कि आप भी यह सापेक्षता के जटिल सिद्धांत को समझती हैं या नहीं ? तो आइंस्टीन की पत्नी निरंतर कहा करती थी कि मुझे इस सिद्धांत का तो कोई पता नहीं। डाक्टर आइंस्टीन ने जो सिद्धांत को जन्म दिया है, उसे तो मैं बिलकुल नहीं समझती, लेकिन डाक्टर आइंस्टीन को मैं भलीभांति समझती हूं। आइंस्टीन ने यह बात एक दफा किसी से कहते हुए पत्नी को सुन लिया। तो उस पर वह बहुत सोचता रहा। एक तो आइंस्टीन ने जो खोज की है, वह और एक पत्नी की भी खोज है। वह कहती है कि मैं डाक्टर आइंस्टीन को समझती हूं। उन्होंने क्या खोजा है, उसका मुझे कुछ पता नहीं। उनके सिद्धांत मेरी समझ के बाहर हैं, लेकिन मैं डाक्टर आइंस्टीन को, खोज करने वाला वह जो छिपा है भीतर, उसको मैं थोड़ा समझती हूं। तो आइंस्टीन तो विज्ञान के रास्ते से खोज कर रहा है; पत्नी प्रेम के रास्ते से खोज कर रही है। आइंस्टीन तो पदार्थ को तोड़कर खोज कर रहा है। पत्नी किन्हीं अदृश्य रास्तों से बिना तोड़े प्रवेश कर रही है और खोज कर रही है। आइंस्टीन तो इंद्रियों के माध्यम से कुछ विश्लेषण में लगा है। पत्नी किसी अतींद्रिय मार्ग से प्रवेश कर रही है। प्रेम हो, कि प्रार्थना हो, कि ध्यान हो, सभी उस अदृश्य की खोज हैं, जो सभी दृश्य के भीतर छिपा हुआ है। और जब तक व्यक्ति उसे खोजने नहीं चल पड़ा है, तब तक वह क्षेत्र के जगत में कितना ही इकट्ठा कर ले, दरिद्र ही रहेगा। और कितने ही बड़े महल बना ले, और कितनी ही बड़ी सख्त दीवालें सुरक्षा की तैयार कर ले, असुरक्षित ही रहेगा। और कुछ भी पा ले, आखिर में मरेगा, तब वह पाएगा कि गरीब, दीन, दुखी, भिखारी मर रहा है। क्योंकि असली संपदा का स्रोत क्षेत्र में नहीं है। असली संपदा का स्रोत उसमें है, जो इस क्षेत्र के भीतर छिपा है और जानता है। ज्ञान मनुष्य की गरिमा है । और ज्ञान का जो तत्व है, वह इस बात में, इस विश्लेषण में, इस भेद-विज्ञान में है कि मैं अपने को पृथक करके देख लूं उससे, जिसमें मैं हूं । जैसे फूल की सुगंध उड़ जाती है दूर, ऐसे ही व्यक्ति को सीखना पड़ता है अपने शरीर से दूर उड़ने की कला। जैसे सुगंध अदृश्य में खो जाती है और दृश्य फूल खड़ा रह जाता है, ऐसे ही स्वयं के ज्ञान के में निचोड़ करना है और धीरे-धीरे उस ज्ञान को ही बच्चा फूल वह आदमी व्यर्थ जी रहा है, जिसके पास एक घंटा भी अपने लिए नहीं है। वह आदमी जी ही नहीं रहा, जो एक घंटा भी अपनी इस भीतर की खोज के लिए नहीं लगा रहा है। क्योंकि आखिर में जब सारा हिसाब होता है, तो जो भी हमने शरीर के तल पर कमाया है, वह तो मौत छीन लेती है; और जो हमने भीतर के तल पर कमाया है, वही केवल मौत नहीं छीन पाती। वही हमारे साथ होता है। इसे खयाल रखें कि मौत आपसे कुछ छीनेगी, उस समय आपके | पास बचाने योग्य है, कुछ भी ? अगर नहीं है, तो जल्दी करें। और एक घंटा कम से कम रोज क्षेत्रज्ञ की तलाश में लगा दें। इतना ही करें, बैठ जाएं घंटेभर । कुछ भी न करें, एक बहुत छोटा-सा प्रयोग करें। इतना ही करें कि तादात्म्य न करूंगा घंटेभर, आइडेंटिफिकेशन न करूंगा घंटेभर। घंटेभर बैठ जाएं। पैर में चींटी काटेगी, तो मैं ऐसा अनुभव करूंगा कि चींटी काटती है, ऐसा मुझे पता चल रहा है। मुझे चींटी काट रही है, ऐसा नहीं । इसका यह मतलब नहीं कि चींटी काटती रहे और आप अकड़कर बैठे रहें। आप चींटी को हटा दें, लेकिन यह ध्यान रखें कि मैं जान रहा हूं कि शरीर चींटी को हटा रहा है। चींटी काट रही है, यह भी मैं जान रहा हूं। शरीर चींटी को हटा रहा है, यह भी मैं जान रहा हूं। सिर्फ मैं जान रहा हूं। पैर में दर्द शुरू हो गया बैठे-बैठे, तो मैं जान रहा हूं कि पैर में दर्द आ गया। फिर पैर को फैला लें। कोई जरूरत नहीं है कि उसको | अकड़ाकर बैठे रहें और परेशान हों। पैर को फैला लें। लेकिन जानते रहें कि पैर फैल रहा है कष्ट के कारण, मैं जान रहा हूं। भीतर एक घंटा एक ही काम करें कि किसी भी कृत्य से अपने को न जोड़ें, और किसी भी घटना से अपने को न जोड़ें। आप एक तीन महीने के भीतर ही गीता के इस सूत्र को अनुभव करने लगेंगे, जो कि आप तीस जन्मों तक भी गीता पढ़ते रहें, तो अनुभव नहीं होगा। एक घंटा, मैं सिर्फ ज्ञाता हूं, इसमें डूबे रहें। कुछ भी हो, पत्नी जोर से बर्तन पटक दे...। क्योंकि पति जब ध्यान करे, तो पत्नी 197
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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