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________________ FO गीता दर्शन भाग-60 क्षण आप अपने से भी हट जाते हैं, वह दूसरा कदम। शरीर के साथ | हम कोई शब्द न देंगे। क्योंकि सभी शब्द सीमित हैं और बांध लेते मैं एक हूं, इससे अहंकार निर्मित होता है। शरीर के साथ मैं एक हैं। और वह असीम है, जो घटेगा। नहीं हूं, अहंकार टूट जाता है। इसलिए बुद्ध ने कहा कि शरीर के साथ तादात्म्य के छूटते ही ऐसा समझें कि शरीर और आपके बीच जो सेतु है, वह अहंकार आत्मा भी मिट जाती है। जो बच रहता है, उसे कृष्ण परमात्मा कहते है। शरीर और आपके बीच जो तादात्म्य का भाव है, वही मैं हूं। | हैं, बुद्ध अनात्मा कहते हैं। वे कहते हैं, इतना पक्का है कि तुम नहीं जैसे ही शरीर से मैं अलग हआ, मैं भी गिर जाता है। फिर जो बच बचते। बाकी जो बचता है, उसके लिए कुछ भी कहना उचित नहीं रह जाता है, वही कृष्ण-तत्व है। उसे कोई राम-तत्व कहे, कोई है। उस संबंध में चुप रह जाना उचित है। क्राइस्ट-तत्व कहे, जो भी नाम देना चाहे, नाम दे। नाम न देना क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का, विकार सहित प्रकृति और पुरुष का जो तत्व से चाहे, तो भी कोई हर्जा नहीं। भेद जानता है...। लेकिन शरीर के साथ हटते ही आप भी मिट जाते हैं. आपका एक तो आपके भीतर संयोग घटित हो रहा है प्रतिपल, आप एक मैं होना मिट जाता है। और यह जो न-मैं होने का अनुभव है, कृष्ण संगम हैं। आप एक मिलन हैं दो तत्वों का। एक तो प्रकृति है, जो कहते हैं, तू सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ भी मेरे को ही जान। दृश्य है। विज्ञान जिसकी खोज करता है, पदार्थ, जो पकड़ में आ सब की आंखों से मैं ही झांकता हूं। सभी के हाथों से मैं ही स्पर्श | जाता है इंद्रियों के, यंत्रों के और जिसकी खोजबीन की जा सकती है। करता हूं। सभी के पैरों से मैं ही चलता हूं। सभी की श्वास भी मैं और एक आपके भीतर तत्व है, जो इंद्रियों से पकड़ में नहीं आता हूं और सभी के भीतर मैं ही जीता और मैं ही विदा होता हूं। जन्म और फिर भी है। और अगर आपको काटें-पीटें, तो तिरोहित हो में भी मैं प्रवेश करता हूं और मृत्यु में भी मैं विदा होता हूं। जाता है। जो हाथ में आता है, वह पदार्थ रह जाता है। लेकिन व्यक्ति का बोध ही शरीर और चेतना के जोड़ से पैदा होता है। आपके भीतर एक तत्व है, जो पदार्थ को जानता है। सिर्फ तादात्म्य का खयाल अस्मिता और अहंकार को जन्म देता है। वह जो जानने की प्रक्रिया है—मेरे हाथ में दर्द हो रहा है, तो मैं शरीर से अलग होने का खयाल, और अस्मिता खो जाती है, | जानता हूं-यह जानना क्या है मेरे भीतर? कितना ही मेरे शरीर को अहंकार खो जाता है। काटा जाए, उस जानने वाले तत्व को नहीं पकड़ा जा सकता। इसलिए बुद्ध ने तो यहां तक कहा कि जैसे ही यह पता चल जाता शायद काटने-पीटने की प्रक्रिया में वह खो जाता है। शायद उसकी है कि मैं शरीर नहीं हूं, वैसे ही यह भी पता चल जाता है कि कोई मौजूदगी को अनुभव करने का कोई और उपाय है। विज्ञान का आत्मा नहीं है। उपाय उसका उपाय नहीं है। यह बड़ा कठिन वक्तव्य है। और बहुत जटिल है, और समझने | धर्म उसकी ही खोज है। विज्ञान है ज्ञेय की खोज, क्षेत्र की। और में बड़ी कठिनाई है। क्योंकि बुद्ध ने कहा कि जैसे ही यह खयाल | धर्म है ज्ञाता की खोज, क्षेत्रज्ञ की। मिट गया कि शरीर मैं हूं, वैसे ही आत्मा भी नहीं होती है। लेकिन याद आता है मुझे, आइंस्टीन ने मरने के कुछ दिन पहले कहा बुद्ध नकारात्मक ढंग से उसी बात को कह रहे हैं, जिसे कृष्ण | कि सब मैंने जानने की कोशिश की। दूर से दूर जो तारा है, उसे विधायक ढंग से कह रहे हैं। | जानने की कोशिश की। पदार्थ के भीतर दर से दर छिपी हई जो अण कृष्ण कहते हैं, तुम नहीं होते, मैं होता हूं। कृष्ण कह रहे हैं, शक्ति है, उसे जानने की मैंने कोशिश की। लेकिन इधर बाद के तुम्हारा मिटना हो जाता है और कृष्ण का रहना हो जाता है। बुद्ध | दिनों में मैं इस रहस्य से अभिभूत होता चला जा रहा हूं कि यह जो कहते हैं, मैं मिट जाता हूं। और उसकी कोई बात नहीं करते, जो | जानने की कोशिश करने वाला मेरे भीतर था, यह कौन था? यह बचता है। क्योंकि वे कहते हैं, बचने की बात करनी व्यर्थ है। उसे | कौन था, जो अणु को तोड़ रहा था और खोज रहा था? यह कौन तो अनुभव ही करना चाहिए। वहां तक कहना ठीक है, जहां तक | था, जो दूर के तारे की तलाश में था? यह खोज कौन कर रहा था? इलाज है। स्वास्थ्य की हम कोई चर्चा न करेंगे। उसका तुम खुद ही | । आइंस्टीन की पत्नी से निरंतर लोग पूछते थे कि आपके पति ने अनुभव कर लेना। निदान हम कर देते हैं, चिकित्सा हम कर देते | जो बहुत कठिन और जटिल सिद्धांत प्रस्तावित किया है थिअरी हैं। चिकित्सा के बाद स्वास्थ्य का कैसा स्वाद होगा, उसके लिए आफ रिलेटिविटी का, सापेक्षता का, उसके संबंध में आप भी कुछ 196
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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