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दुख से मुक्ति का मार्गः तादात्म्य का विसर्जन
मालूम पड़ेगा। लेकिन जो घड़ा इस अनुभव को उपलब्ध हो जाए कि भीतर भरा हुआ जल मैं हूं, तत्क्षण पड़ोसी भी मिट जाएगा। उसकी मिट्टी की देह भी व्यर्थ हो जाएगी। उसके भीतर का जल ही सार्थक हो जाएगा। जल तो दोनों के भीतर एक है।
चैतन्य तो सबके भीतर एक है। दीए अलग-अलग हैं मिट्टी के, उनके भीतर ज्योति तो एक है, उनके भीतर सूरज का प्रकाश तो एक हैं।
सब दीयों के भीतर एक ही सूरज जलता है, बड़े से बड़े दीए के भीतर और छोटे से छोटे दीए के भीतर। जो सूरज में है, वही रात जुगनू में भी चमकता है। जुगनू कितनी ही छोटी हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। सूरज कितना ही बड़ा हो, इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता। बड़े-छोटे से कोई फर्क नहीं पड़ता। वह जो प्रकाश की घटना है, वह जो प्रकाश का तत्व है, वह एक है ।
जैसे ही कोई व्यक्ति शरीर से थोड़ा पीछे हटता है, अपने भीतर ही खड़े होकर देखता है कि मैं शरीर नहीं हूं, वैसे ही दूसरी बात भी दिखाई पड़नी शुरू हो जाती है, दूसरा द्वार भी खुल जाता है। तब सभी के भीतर वह जो जानने वाला है, वह एक है ।
तो कृष्ण कहते हैं, वह जो सभी के भीतर क्षेत्रज्ञ है, वह तू मुझे ही जान। सबके भीतर से मैं ही जान रहा हूं।
यह एक बहुत नया आयाम है। परमात्मा जगत को बनाने वाला नहीं है; परमात्मा सब तरफ से जगत को जानने वाला है, सबके भीतर से ।
एक कबूतर बैठकर देख रहा है; एक छोटा बच्चा देख रहा है; अब तो वे कहते हैं कि फूल भी खिलता है, उसके पास भी बड़ी सूक्ष्म आंखें हैं, वह भी देख रहा है। अब तो वे कहते हैं, वृक्षों के पास भी आंखें हैं, वह भी देख रहा है। अब तो वैज्ञानिक भी कहते हैं कि सभी चीजें देख रही हैं। सभी चीजें अनुभव कर रही हैं। सभी भीतर अनुभोक्ता बैठा है।
वह जो सबके भीतर से जान रहा है, कृष्ण कहते हैं, वह मैं हूं। परमात्मा कहीं दूर नहीं है। कहीं फासले पर नहीं है। निकट से भी निकट है।
एक ईसाई फकीर संत लयोला ने एक छोटे-से ध्यान के प्रयोग की बात कही है। वह ध्यान का प्रयोग कीमती है और चाहें तो आप कर सकते हैं और अनूठा है। जिस किसी व्यक्ति को आप बहुत प्रेम करते हों, उसके सामने बैठ जाएं। स्नान कर लें, जैसे मंदिर में प्रवेश करने जा रहे हों । द्वार- दरवाजे बंद कर लें, ताकि कोई
| आपको बाधा न दे। और एकटक दोनों व्यक्ति एक-दूसरे की आंख में झांकना शुरू कर दें। सिर्फ एक-दूसरे की आंख में झांकें, और सब भूल जाएं। सब तरफ से ध्यान हटा लें और एक-दूसरे की आंख में अपने को उंडेलना शुरू कर दें। चाहे आपका छोटा बच्चा ही हो; जिससे भी आपका लगाव हो ।
लगाव हो तो अच्छा, क्योंकि जरा आसानी से आप भीतर प्रवेश कर सकेंगे। क्योंकि जिससे आपका लगाव न हो, उससे हटने का मन होता है। जिससे आपका लगाव हो, उसमें प्रवेश करने का मन होता है। हमारा प्रेम एक-दूसरे में प्रवेश करने की आकांक्षा ही है।
तो जिससे थोड़ा प्रेम हो, उसकी आंखों में झांकें, एकटक, और उससे भी कहें कि वह भी आंखों में झांके । और पूरी यह कोशिश करें कि सारी दुनिया मिट जाए। बस, वे दो आंखें रह जाएं और आप उसमें यात्रा पर निकल जाएं।
एक दो-चार दिन के ही प्रयोग से, एक आधा घंटा रोज करने से | आप चकित हो जाएंगे। आपके सारे विचार खो जाएंगे। जो विचार आप लाख कोशिश करके बंद नहीं कर सके थे, वे बंद हो जाएंगे। | और एक अनूठा अनुभव होगा। जैसे कि आप दूसरे व्यक्ति में सरक रहे हैं, आंखों के द्वारा उतर रहे हैं। आंखें जैसे रास्ता बन गईं।
अगर इस प्रयोग को आप जारी रखें, तो एक महीने, पंद्रह दिन के भीतर एक अनूठी प्रतीति किसी दिन होगी । और वह प्रतीति यह होगी कि आपको यह समझ में न आएगा कि वह जो दूसरे के भीतर बैठा है, वह आप हैं; या जो आपके भीतर बैठा है, वह आप हैं। शरीर भूल जाएंगे और दो चेतनाएं, घड़े हट जाएंगे और दो जल की धाराएं मिल जाएंगी।
और एक बार आपको यह खयाल में आ जाए कि दूसरे के भी भीतर जो बैठा है, वह ठीक मेरे ही जैसा चैतन्य है, मैं ही बैठा हूं, तब फिर आप हर दरवाजे पर झांक सकते हैं और हर दरवाजे के भीतर आप उसको ही छिपा हुआ पाएंगे।
आपने वह चित्र देखा होगा, जिसमें कृष्ण सब में छिपे हैं, गाय में भी, वृक्ष में भी, पत्ते में भी, सखियों में भी। वह किसी कवि की कल्पना नहीं है, और वह किसी चित्रकार की सूझ नहीं है। वह | किन्हीं अनुभवियों का अनुभव है। एक बार आपको अपनी प्रतीति हो जाए शरीर से अलग, तो आपको पता लगेगा कि यही चैतन्य सभी तरफ बैठा हुआ है। इस चैतन्य की मौजूदगी ही परमात्मा की मौजूदगी का अनुभव है।
जिस क्षण आप शरीर से हटते हैं, यह पहला कदम । दूसरे ही
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