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स्वयं को बदलो
उसी वर्ग में हैं। उनको लगता है कि ठीक हो रहा है। लेकिन इतना लगना काफी नहीं है। करने की हिम्मत बड़ी दूसरी बात है। क्योंकि जैसे ही आप करना शुरू करते हैं कुछ, बहुत-से परिणाम होंगे। पहला तो यह साहस करना पड़ेगा, पागल होने का साहस । क्योंकि धर्म साधारण आदमी करता नहीं, सुनता है। और जब भी धर्म को कोई करने लगता है, तो बाकी लोग उसको पागल समझते हैं। कबीर को भी लोग पागल समझते हैं। मीरा को भी लोग पागल समझते हैं। बुद्ध भी लोग पागल समझते हैं। क्राइस्ट को भी लोग पागल समझते हैं। यह तो बहुत बाद में लोग उनको समझ पाते हैं कि वे पागल नहीं हैं। यह भी वे तभी समझ पाते हैं, जब बात इतनी दूर हो जाती है कि उनसे सीधा संबंध नहीं रह जाता।
आप भी जब पहली दफा धर्म के जीवन में उतरेंगे, तो आस-पास के लोग आपको पागल समझना शुरू कर देंगे। संसार ने यह इंतजाम किया हुआ है कि उसके जाल के बाहर कोई जाए, तो उसके मार्ग में सब तरह की बाधाएं खड़ी करनी हैं। और यह उचित भी है, क्योंकि अगर सभी लोगों को धर्म की तरफ जाने में आसानी दी जाए, तो बाकी लोग जो धार्मिक न होंगे, उनको बड़ा कष्ट होना शुरू हो जाएगा। अपने कष्ट से बचने के लिए वे धार्मिक व्यक्ति को पागल करार देकर सुविधा में रहते हैं। वे समझ लेते हैं कि दिमाग खराब हो गया है। आसानी हो जाती है।
आप कृष्ण को पूजते भला हों, लेकिन कृष्ण अगर आपको मिल जाएं, तो आप उनको भी पागल ही समझेंगे। वे तो मिलते नहीं; मूर्ति को आप पूजते रहते हैं। असली कृष्ण खड़े हो जाएं, तो शायद आप घर में टिकने भी न दें। शायद आप रात घर में ठहरने भी न दें। क्योंकि इस आदमी का क्या भरोसा ! हो सकता है आपकी पत्नी इसके लगाव में पड़ जाए, सखी बन जाए, गोपी हो जाए। तो आप घबड़ाएंगे।
जीवित कृष्ण से तो आप परेशान हो जाएंगे। मरे हुए कृष्ण को पूजना बिलकुल आसान है। क्योंकि मरे हुए कृष्ण से आपकी जिंदगी में कोई फर्क नहीं होता।
जीसस को मानने वाले लोगों को भी अगर जीसस मिल जाएं, तो वे उनको फिर सूली पर चढ़ा देंगे। क्योंकि वह आदमी अब भी वैसा ही खतरनाक होगा।
समय बहुत जब बीत जाता है और कथाएं हाथ में रह जाती हैं, जिनको सुनने और पढ़ने का मजा होता है, तब धर्म की अड़चन मिट जाती है।
तो यहां जब कुछ लोग कीर्तन कर रहे हैं, तो वे लोग तो हिम्मत करके पागल हो रहे हैं। अगर आपको लगता है कि ठीक कर रहे हैं, तो सम्मिलित हो जाएं। सम्मिलित होने में आपको भय छोड़ना पड़ेगा। लोग क्या कहेंगे, यह पहला भय है; और गहरे से गहरा भय है। लोग क्या समझेंगे ?
एक महिला मेरे पास कुछ ही दिन पहले आई। और उसने मुझे कहा कि मेरे पति ने कहा है कि सुनना तो जरूर, लेकिन भूलकर कभी कीर्तन में सम्मिलित मत होना। तो मैंने उससे पूछा कि पति को क्या फिक्र है तेरे कीर्तन में सम्मिलित होने से ? तो उसने कहा, पति मेरे डाक्टर हैं; प्रतिष्ठा वाले हैं। वे बोले कि अगर तू कीर्तन में सम्मिलित हो जाए, तो लोग मुझे परेशान करेंगे कि आपकी पत्नी को क्या हो गया ! तो तू और सब करना, लेकिन कीर्तन भर में सम्मिलित मत होना ।
घर से लोग समझाकर भेजते हैं कि सुन लेना, करना भर मत कुछ, क्योंकि करने में खतरा है। सुनने तक बात बिलकुल ठीक है। | करने में अड़चन मालूम होती है, क्योंकि आप पागल होने के लिए तैयार नहीं हैं। और जब तक आप पागल होने के लिए तैयार नहीं हैं, तब तक धार्मिक होने का कोई उपाय नहीं है।
तो सुनें मजे से ; फिर चिंता में मत पड़ें। जिस दिन भी करेंगे, उस दिन आपको दूसरे क्या कहेंगे, इसकी फिक्र छोड़ देनी पड़ेगी।
दूसरे बहुत-सी बातें कहेंगे। वे आपके खिलाफ नहीं कह रहे हैं, वे अपनी आत्म-रक्षा कर रहे हैं। क्योंकि अगर आपको ठीक मानें, तो वे गलत लगेंगे। इसलिए उपाय एक ही है कि आप गलत हैं, तो वे अपने को ठीक मान सकते हैं। और निश्चित ही उनकी संख्या | ज्यादा है। आपको गलत होने के लिए तैयार होना पड़ेगा ।
बड़े से बड़ा साहस समूह के मत से ऊपर उठना है। लोग क्या | कहेंगे, यह फिक्र छोड़ देनी है। इस फिक्र के छोड़ते ही आपके भीतर भी रस का संचार हो जाएगा। यही द्वार बांधा हुआ है, इसी से दरवाजा रुका हुआ है। यह फिक्र छोड़ते ही से आपके पैर में भी थिरकन आ जाएगी, और आपका हृदय भी नाचने लगेगा, और आप भी गा सकेंगे।
और अगर यह फिक्र छोड़कर आप एक बार भी गा सके और नाच सके, तो आप कहेंगे कि अब दुनिया की मुझे कोई चिंता नहीं है। एक बार आपको स्वाद मिल जाए किसी और लोक का, तो फिर कठिनाई नहीं है लोगों की फिक्र छोड़ने में।
कठिनाई तो अभी है कि उसका कोई स्वाद भी नहीं है, जिसे पाना
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