________________
ॐ गीता दर्शन भाग-60
बहुत कठिनाई होगी। लेकिन कठिनाई शुरू में ही होगी, थोड़े ही कामचलाऊ ढंग से मान लेते हैं। इसलिए किसी को शिक्षक बना दिन में कठिनाइयां शांत हो जाएंगी। और थोड़े दिन में आप पाएंगे | | लेना आसान है, गुरु बनाया कठिन है। और फर्क है गुरु और कि कठिनाइयों के ऊपर उठ गए। और जब आप सरल हो जाएंगे, | | शिक्षक में। शिक्षक का मतलब है, यह कामचलाऊ संबंध है। तो लोग आपकी बात का बुरा भी न मानेंगे।
तुमसे हम सीख लेते हैं, उसके बदले में हम तुम्हें कुछ दे देते हैं। ___ शुरू में तो बहुत बुरा मानेंगे, क्योंकि आप एकदम बदलेंगे और | | तुम्हारी फीस ले लो। हम तुम्हें धन दे देते हैं, तुम हमें ज्ञान दे दो; लगेगा कि यह क्या हो गया! यह आदमी कल तक क्या था, आज | बात खतम हो गई। यह गुरु का संबंध नहीं है। क्या हो गया! एकदम पतन हो गया इस आदमी का। कल तक | शिक्षक का संबंध ऐसा है, रास्ते पर किसी आदमी से पूछा कि कहता था प्रेम, आज कहता है कि एक क्षण प्रेम का मुझे कोई पता स्टेशन का रास्ता किधर जाता है। बस, इतनी बात है। उसने रास्ता ही नहीं है। मैंने कभी तझे प्रेम किया नहीं है।
बता दिया। आपने उसको धन्यवाद दे दिया, अपने रास्ते पर चले शुरू में कठिनाई होगी, लेकिन जैसे-जैसे सरलता बढ़ती | | गए। कुछ लेना-देना नहीं है। शिक्षक और विद्यार्थी का संबंध ऐसा जाएगी, प्रकट होने लगेगी, वैसे-वैसे कठिनाई विदा हो जाएगी। | है, उसमें कामचलाऊ रिश्ता है, उपयोगिता का संबंध है। और एक मजा है, सरलता में झेली गई कठिनाई भी सुख देती है | | गुरु और शिष्य का रिश्ता गैर-उपयोगिता का है और उसमें और जटिलता में आया सुख भी दुख ही हो जाता है। क्योंकि हम कोई कामचलाऊ बात नहीं है। और इसीलिए गुरु को शिष्य कुछ भीतर इतनी गांठों से भर जाते हैं कि सुख हममें प्रवेश ही नहीं कर | भी तो नहीं दे सकता। प्रत्युत्तर में कुछ भी नहीं दे सकता; कोई धन सकता। हम भीतर इतने अशांत हो जाते हैं कि अब कोई शांति की | | नहीं दे सकता। किरण हममें प्रवेश नहीं कर सकती।
__ पुराने दिनों में तो व्यवस्था यह थी कि गुरु भोजन भी विद्यार्थी तो कृष्ण कहते हैं, मन-वाणी की सरलता, श्रद्धा-भक्ति सहित | | को देगा, आश्रम में रहने की जगह भी देगा। उसकी सब भांति फिक्र गुरु की सेवा-उपासना...।
करेगा, जैसे पिता अपने बेटे की फिक्र करे। ज्ञान भी देगा और इतनी क्यों बातें जोड़नी? श्रद्धा-भक्ति सहित गुरु की | | बदले में कुछ भी नहीं लेगा। सेवा-उपासना। क्या जरूरत है इतनी बातें जोड़ने की गुरु की | ___ आप कठिनाई में पड़ेंगे उस आदमी के साथ, जो बदले में कुछ उपासना में?
न ले। जो बदले में कुछ ले ले, उससे तो हमारा नाता-रिश्ता कारण है। किसी को भी गुरु स्वीकार करना मनुष्य के लिए अति | | समानता का हो जाता है। जो बदले में कुछ न ले, उससे हमारा कठिन है। इस जगत में कठिनतम बातों में यह बात है कि किसी | नाता-रिश्ता समानता का कभी नहीं हो पाता। वह ऊपर होता है, को गुरु स्वीकार करें। क्योंकि गुरु स्वीकार करने का अर्थ होता है, | हम नीचे होते हैं। मैंने अपने को स्वीकार किया कि मैं अज्ञानी हूं। गुरु को स्वीकार तो इतने आग्रहपूर्वक कृष्ण कहते हैं, श्रद्धा-भक्ति सहित गुरु की करने का अर्थ होता है, मैंने स्वीकारा कि मैं अज्ञानी हूं। यह बड़ी | | सेवा-उपासना। कठिन बात है। हमारा मानना होता है कि हम तो ज्ञानी हैं ही। श्रद्धा-भक्ति की बहुत जरूरत पड़ेगी। और इसका एक
तो शिष्य बनना बहुत कठिन है। शायद सर्वाधिक कठिन बात | मनोवैज्ञानिक रूप भी समझ लेना जरूरी है। कही जा सकती है, शिष्य बनना, सीखने की तैयारी। अहंकार को __मनसविद कहते हैं कि जिस व्यक्ति से भी हम कुछ लेते हैं और छोड़ना पड़े पूरा।
उसके उत्तर में नहीं दे पाते, उसके प्रति हमारे मन में दुश्मनी पैदा और फिर किसी को गुरु स्वीकार करना, किसी को अपने से | होती है। क्योंकि उस आदमी ने हमें किसी तरह नीचा दिखाया है। ऊपर स्वीकार करना, बड़ा जटिल है। मन तो यही कहता है कि एक मेरे मित्र हैं। बड़े धनपति हैं और बड़े दंभी हैं। और बड़े भले मुझसे ऊपर कोई भी दुनिया में नहीं है। और सब हैं, मुझसे नीचे | | आदमी हैं। और जब भी कोई मुसीबत में हो, तो उसकी सहायता हैं। हर आदमी अपने को शिखर पर मानता है। यह सहज मन की | करते हैं। कम से कम उनके रिश्तेदारों में तो कोई भी मुसीबत में हो, दशा है।
तो वे हर हालत में सहायता करते हैं। मित्र, परिचित, कोई भी हो, तो किसी को अपने से ऊपर मानना बड़ी कठिन है बात। हम सहायता करते हैं।
| 236/