SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐ गीता दर्शन भाग-60 भर देते हैं, तो फिर आप फिक्र मत करें। | हैं, वे संपूर्ण भूतों के हित में रत हुए और सब में समान भाव वाले लेकिन हम बड़े अजीब लोग हैं ! परमात्मा की खोज में भी हम योगी भी मेरे को ही प्राप्त होते हैं। पड़ोसी की फिक्र रखते हैं, कि पड़ोसी क्या सोचेगा! अगर मैं सुबह | | कोई ऐसा न समझे कि भक्ति से ही पहुंचा जा सकता है। कोई से उठकर कीर्तन कर दूं, तो आस-पास खबर हो जाएगी कि आदमी | ऐसा न समझे कि भक्ति के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। तो पागल हो गया। हम पड़ोसियों की इतनी फिक्र करते हैं कि मरते कृष्ण दूसरे सूत्र में तत्काल कहते हैं कि वे जो भक्त हैं, और मेरे में वक्त भी परमात्मा का ध्यान नहीं होता। मरते वक्त भी यह ध्यान सब भांति डूबे हुए हैं, जिनका मन सब भांति मुझमें लगा हुआ है, होता है कि कौन-कौन लोग मरघट पहचाने जाएंगे। फलां आदमी और जो मुझ सगुण को, साकार को निरंतर भजते हैं श्रद्धा से, वे जाएगा कि नहीं! मरते वक्त भी यह खयाल होता है कि कौन-कौन श्रेष्ठतम योगी हैं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि केवल वे ही पड़ोसी पहुंचाने जाएंगे। पहुंचते हैं। वे भी पहुंच जाते हैं, जो निराकार का ध्यान करते हैं। वे क्या फर्क पड़ता है कि कौन पहुंचाने आपको गया! और न भी | | भी पहुंच जाते हैं, जो शून्य के साथ अपना एकीभाव करते हैं। वे गया कोई पहुंचाने, तो कोई फर्क नहीं पड़ता। मर ही गए। लेकिन | | भी मुझको ही उपलब्ध होते हैं। उनका मार्ग होगा दूसरा, लेकिन मरने के बाद भी पड़ोसियों का ध्यान रहता है। जिंदा में भी पूरे | | उनकी मंजिल मैं ही हूं। तो कोई सगुण से चले कि निर्गुण से, वह वक्त पड़ोसी से परेशान हैं, कि पड़ोसी क्या सोचेगा! और पड़ोसी | पहुंचता मुझ तक ही है। सोच रहा है कि आप क्या सोचेंगे! वह आपकी वजह से रुका है, | | पहुंचने को और कोई जगह नहीं है। कहां से आप चलते हैं, आप उसकी वजह से रुके हैं! यह भी हो सकता है कि आप नाचने | | इससे कोई भेद नहीं पड़ता। जहां आप पहुंचेंगे, वह जगह एक है। लगें. तो शायद पडोसी भी नाच उठे। तो वह भी आपकी वजह से आपके यात्रा-पथ अनेक होंगे, आपके ढंग अलग-अलग होंगे। रुका हो। | आप अलग-अलग विधियों का उपयोग करेंगे, अलग नाम लेंगे, अगर प्रार्थना आपको प्रीतिकर लगती हो, तो भय छोड़ दें, और अलग गुरुओं को चुनेंगे, अलग अवतारों को पूजेंगे, अलग मंदिरों उस तरफ पूरे हृदय को आनंद से भरकर नाचने दें और लीन होने | | में प्रवेश करेंगे, लेकिन जिस दिन घटना घटेगी, आप अचानक दें। अगर आपको प्रार्थना ठीक न समझ में आती हो, तो प्रार्थना पाएंगे, वे सब भेद खो गए, वे सब अनेकताएं समाप्त हो गईं और ठीक नहीं है, ऐसा कहकर बैठ मत जाएं। तो फिर बिना प्रार्थना के | आप वहां पहुंच गए हैं, जहां कोई भेद नहीं है, जहां अभेद है। मार्ग भी हैं; ध्यान है, निर्विचार होने के उपाय हैं। तो फिर विचार के बड़ा उलटा मालूम पड़ता है। जो तर्क, चिंतन करते रहते हैं, उन्हें त्याग का प्रयोग शुरू करें। | लगता है, दोनों बातें कैसे सही हो सकती हैं ! क्योंकि निराकार और लेकिन बड़े मजेदार लोग हैं। अगर उनसे कहो प्रार्थना, तो वे | | साकार तो विपरीत मालूम पड़ते हैं। सगुण और निर्गुण तो विपरीत कहते हैं, लोग क्या कहेंगे! अगर उनसे कहो ध्यान, तो वे कहते | | मालम पडते हैं। कितना विवाद चलता है। पंडितों ने अपने सिर हैं, बड़ा कठिन है। हमसे न हो सकेगा। न करने का बहाना हम | | खाली कर डाले हैं। अपनी जिंदगियां लगा दी हैं इस विवाद में कि हजार तरह से निकाल लेते हैं। सगुण ठीक है कि निर्गुण ठीक है। बड़े पंथ, बड़े संप्रदाय खड़े हो साधक हमेशा करने का बहाना खोजेगा कि किस बहाने मैं कर गए हैं। बड़ी झंझट है। एक-दूसरे को गलत सिद्ध करने की इतनी सकू। कोई भी बहाना मिल जाए, तो मैं कर सकूँ। ऐसी जिसकी चेष्टा है कि करीब-करीब दोनों ही गलत हो गए हैं। विधायक खोज है, वह आज नहीं कल अपने ध्यान को उस दिशा | इस जमीन पर इतना जो अधर्म है, उसका कारण यह नहीं है कि में लगा लेता है, जहां परमात्मा की प्रतीति है। | नास्तिक हैं दुनिया में बहुत ज्यादा। नहीं। आस्तिकों ने एक-दूसरे अब हम सूत्र को लें। को गलत सिद्ध कर-करके ऐसी हालत पैदा कर दी है कि कोई भी और जो परुष इंद्रियों के समदाय को अच्छी प्रकार वश में| सही नहीं रह गया। मंदिर, मस्जिद को गलत कह देता है; मस्जिद करके मन-बुद्धि से परे सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा | | मंदिर को गलत कह देती है। मंदिर इस खयाल से मस्जिद को गलत एकरस रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार और अविनाशी, कहता है कि अगर मस्जिद गलत न हुई, तो मैं सही कैसे होऊंगा! सच्चिदानंदघन ब्रह्म को निरंतर एकीभाव से ध्यान करते हुए उपासते मस्जिद इसलिए गलत कहती है कि अगर तुम भी सही हो, तो हमारे 26
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy