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________________ ॐ प्रेम का द्वार : भक्ति में प्रवेश 0 लेकिन वह पक्षी सब तरफ टकराता है, खुली खिड़की छोड़कर। | इस जगत में प्रवेश करते हैं। प्रेम से ही हम इस जगत के बाहर जा ऐसा नहीं कि उस पक्षी को बुद्धि न थी। उस पक्षी को भी बुद्धि रही | सकते हैं। लेकिन प्रेम के कुछ लक्षण समझ लेने जरूरी हैं। होगी। लेकिन पक्षी का भी यही खयाल रहा होगा कि जिस खिड़की । प्रेम का पहला लक्षण तो है उसका अंधापन। और जो भी प्रेम में से भीतर आकर मैं फंस गया, उस खिड़की से बाहर कैसे निकल नहीं होता, वह प्रेमी को अंधा और पागल मानता है। मानेगा। सकता हूं! जो भीतर लाकर मुझे फंसा दी, वह बाहर ले जाने का | | क्योंकि प्रेमी सोच-विचार नहीं करता; तर्क नहीं करता; हिसाब नहीं द्वार कैसे हो सकती है! यही तर्क उसका रहा होगा। जिससे हम लगाता; क्या होगा परिणाम, इसकी चिंता नहीं करता। बस, छलांग झंझट में पड़ गए, उससे हम झंझट के बाहर कैसे निकलेंगे! लगा लेता है। जैसे प्रेम इतनी बड़ी घटना है कि उसमें डूब जाता है, इसलिए उस खिड़की को छोड़कर पक्षी ने सारी कोशिश की। । और एक हो जाता है। बायजीद ने सहायता भी पहुंचानी चाही। लेकिन जितनी सहायता । वे, जो भी आस-पास खड़े लोग हैं, वे सोचेंगे कि कुछ गलती करने की कोशिश की, पक्षी उतना बेचैन और परेशान हुआ। उसे | हो रही है। प्रेम में भी विचार होना चाहिए। प्रेम में भी सूझ-बूझ लगा कि बायजीद भी उसको उलझाने की, फांसने की, गुलाम बनाने | होनी चाहिए। कहीं कोई गलत कदम न उठ जाए, इसकी की, बंदी बनाने की कोशिश कर रहा है। और भी घबड़ा गया। पूर्व-धारणा होनी चाहिए। बायजीद ने लिखा है कि उस दिन मुझे समझ में आया कि संसार प्रेम अंधा दिखाई पड़ेगा बुद्धिमानों को। लेकिन प्रेम की अपनी में आकर हम भी ऐसे ही उलझ गए हैं; और जिस द्वार से हमने ही आंखें हैं। और जिसको वे आंखें उपलब्ध हो जाती हैं, वह बुद्धि भीतर प्रवेश किया है, उस द्वार को छोड़कर हम सब द्वारों की खोज की आंखों को अंधा मानने लगता है। जिसको प्रेम का रस आ जाता करते हैं। और जब तक हम उसी द्वार पर नहीं पहुंच जाते, जहां से है, उसके लिए सारा तर्कशास्त्र व्यर्थ हो जाता है। और जो प्रेम की हम जीवन में प्रवेश करते हैं, तब तक हम बाहर भी नहीं निकल | धुन में नाच उठता है, जो उस संगीत को अनुभव कर लेता है, वह सकते हैं। आपके सारे सोच-विचार को दो कौड़ी की तरह छोड़ दे सकता है। बुद्धि के कारण आप जगत में नहीं उलझ गए हैं। विचार के | उसके हाथ में कोई हीरा लग गया। अब इस हीरे के लिए आपकी कारण आप जगत में नहीं उलझ गए हैं। आपके जगत में आगमन | कौड़ियों को नहीं सम्हाला जा सकता। का द्वार प्रेम है। आपके अस्तित्व का, जीवन का द्वार प्रेम है। और प्रेम अंधा मालूम पड़ता है। क्योंकि प्रेम के पास वे ही आंखें नहीं प्रेम जब उलटा हो जाता है, तो भक्ति बन जाती है। जब प्रेम की | | हैं, जो बुद्धि के पास हैं। प्रेम के पास कोई दूसरी आंखें हैं। प्रेम के दिशा बदल जाती है, तो भक्ति बन जाती है। | देखने का ढंग कोई और है। प्रेम हृदय से देखता है। और चूंकि हम जब तक आप अपनी आंखों के आगे जो है उसे देख रहे हैं, जब इस जगत में प्रेम के कारण ही प्रविष्ट होते हैं। अपने प्रेम के कारण, तक उससे आपका मोह है, लगाव है, तब तक आप संसार में | दूसरों के प्रेम के कारण हम इस जगत में आते हैं। हमारा शरीर निर्मित उतरते चले जाते हैं। और जब आप आंख बंद कर लेते हैं और जो | होता है। हम अस्तित्ववान होते हैं। इसी प्रेम को उलटाना पड़ेगा। आंख के आगे दिखाई पड़ता है वह नहीं, बल्कि आंख के पीछे जो इसी अंधे प्रेम का नाम, जब यह जगत की तरफ से हटता है और छिपा है, उस पर लगाव और प्रेम को जोड़ देते हैं, तो भक्ति बन | भीतर चैतन्य की तरफ मुड़ता है, श्रद्धा है। श्रद्धा अंधा प्रेम है, जाती है। द्वार वही है। द्वार दूसरा हो भी नहीं सकता। लेकिन मूल-स्रोत की तरफ लौट गया। संसार की तरफ बहता हुआ जिससे हम भीतर आते हैं, उससे ही हमें बाहर जाना होगा। जिस | वही प्रेम वासना बन जाता है। परमात्मा की तरफ लौटता हुआ वही रास्ते से आप यहां तक आए हैं, घर लौटते वक्त भी उसी रास्ते से | | प्रेम श्रद्धा और भक्ति बन जाती है। जाइएगा। सिर्फ एक ही फर्क होगा कि यहां आते समय आपका ध्यान | | जैसा प्रेम अंधा है, वैसी भक्ति भी अंधी है। इसलिए जो बहुत इस तरफ था, आंखें इस तरफ थीं, रुख इस तरफ था। लौटते वक्त | | बुद्धिमान हैं, उनके लिए भक्ति का मार्ग, मार्ग ही मालूम नहीं इस तरफ पीठ होगी। आंखें वही होंगी, सिर्फ दिशा बदल जाएगी। | पड़ेगा। जो बहुत सोच-विचार करते हैं. जो बहत तर्क करते हैं. जो आप वही होंगे. रास्ता वही होगा: सिर्फ दिशा बदल जाएगी। | परमात्मा के पास भी बुद्धिमानीपूर्वक पहुंचना चाहते हैं, उनके लिए प्रेम की दिशा के परिवर्तन का नाम भक्ति है। और प्रेम से हम | | | भक्ति का मार्ग नहीं है।
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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