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गीता दर्शन भाग-60
श्रीमद्भगवद्गीता
ऐसा साहस भी रखना होगा कि जहां हम चुक जाते हैं, जरूरी नहीं अथ द्वादशोऽध्यायः
कि सत्य चुक जाता हो। और जहां हमारी सीमा आ जाती है, जरूरी
नहीं है कि अस्तित्व की सीमा आ जाती हो। अर्जुन उवाच
अपने से भी आगे जाने का साहस हो, तो ही भक्ति समझ में आ एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते। | सकती है। जो अपने को ही पकड़कर बैठ जाते हैं, भक्ति उनके ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ।।१।। समझ में नहीं आ सकेगी। जो अपनी बुद्धि को ही अंतिम मापदंड श्रीभगवानुवाच
| मान लेते हैं, उनके मापदंड में भक्ति का सत्य नहीं बैठ सकेगा। मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते। इस बात को पहले समझ लें। कुछ जरूरी बातें इस बात को
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः।।२।। | समझने के लिए खयाल में लेनी होंगी। इस प्रकार भगवान के वचनों को सुनकर अर्जुन बोला, हे एक तो जो हमें तर्क जैसा मालूम पड़ता है और उचित लगता है,
कृष्ण, जो अनन्य प्रेमी भक्तजन इस पूर्वोक्त प्रकार से सब भांति बुद्धि को भाता है, जरूरी नहीं है कि बहुत गहरी खोज निरंतर आपके भजन व ध्यान में लगे हुए आप सगुणरूप पर सही ही सिद्ध हो।
परमेश्वर को अति श्रेष्ठ भाव से उपासते हैं और जो ___ जो हम जानते हैं, अगर वहां तक सत्य होता, तो हमें मिल गया अविनाशी सच्चिदानंदघन निराकार को ही उपासते हैं, उन | होता। जो हमारी समझ है, अगर वहीं परमात्मा की अनुभूति होने दोनों प्रकार के भक्तों में अति उत्तम योगवेत्ता कौन है? ।। | वाली होती, तो हमें हो गई होती। जो हम हैं, वैसे ही अगर हम उस
इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्रीकृष्ण भगवान बोले, परम रहस्य में प्रवेश कर पाते, तो हम प्रवेश कर ही गए होते। मेरे में मन को एकाग्र करके निरंतर मेरे भजन-ध्यान में लगे | एक बात तो साफ है कि जैसे हम हैं, उससे परम सत्य का कोई
हुए जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त हुए संबंध नहीं जुड़ता है। हमारी बुद्धि जैसी अभी है, आज है, उसका मुझ सगुणरूप परमेश्वर को भजते हैं, वे मेरे को योगियों में | | जो ढांचा और व्यवस्था है, शायद उसके कारण ही जीवन का रहस्य भी अति उत्तम योगी मान्य हैं अर्थात उनको मैं अति श्रेष्ठ खुल नहीं पाता; द्वार बंद रह जाते हैं। मानता हूं।
कभी आपने देखा हो...सूफी निरंतर कहते रहे हैं...। सूफी फकीर बायजीद बार-बार कहता था कि एक बार एक मस्जिद में
बैठा हुआ था। और एक पक्षी खिड़की से भीतर घुस आया। बंद 7 क अतयं यात्रा पर इस अध्याय का प्रारंभ होता है। कमरा था, सिर्फ एक खिड़की ही खुली थी। पक्षी ने बड़ी कोशिश ५ एक तो जगत है, जो मनुष्य की बुद्धि समझ पाती है; | की, दीवालों से टकराया, बंद दरवाजों से टकराया, छप्पर से
सरल है। गणित और तर्क वहां काम करता है। समझ | | टकराया। और जितना टकराया, उतना ही घबड़ा गया। जितना में आ सके, समझ के नियमों के अनुकूल, समझ की व्यवस्था में | | घबड़ा गया, उतनी बेचैनी से बाहर निकलने की कोशिश की। बैठ सके, विवाद किया जा सके, निष्कर्ष निकाले जा सकें—ऐसा | | बायजीद बैठा ध्यान करता था। बायजीद बहुत चकित हुआ। एक जगत है। और एक ऐसा जगत भी है, जो तर्क के नियमों को | सिर्फ उस खिड़की को छोड़कर पक्षी ने सारी कोशिश की, जो तोड़ देता है। बुद्धि वहां जाने की कोशिश करे, तो द्वार बंद पाती है। खिड़की खुली थी और जिससे वह भीतर आया था! वहां हृदय ही प्रवेश कर सकता है। वहां अंधा होना ही आंख वाला | | बायजीद बहुत चिंतित हुआ कि इस पक्षी को कोई कैसे समझाए होना है; और वहां मूढ़ होना बुद्धिमत्ता है।
| कि जब तू भीतर आ गया है, तो बाहर जाने का मार्ग भी निश्चित ऐसे अतयं के आयाम में भक्ति-योग के साथ प्रवेश होगा। ही है। क्योंकि जो मार्ग भीतर ले आता है, वही बाहर भी ले जाता बहुत सोचना पड़ेगा; क्योंकि जो सोचने की पकड़ में न आ सके, | | है। सिर्फ दिशा बदल जाती है, द्वार तो वही होता है। और जब पक्षी उसके लिए बड़ी चेष्टा करनी पड़ेगी। जो समझ के बाहर हो, उसे | | भीतर आ सका है, तो बाहर भी जा ही सकेगा। अन्यथा भीतर आने समझने के लिए स्वयं को पूरा ही दांव पर लगा देना होगा। और का भी कोई उपाय न होता।