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गीता दर्शन भाग-6
गरीबी बेहतर।
हमने जाना भी है, बुद्ध और महावीर अमीर घरों में पैदा हुए और गरीब हो गए। छोड़कर सड़क पर खड़े हो गए।
अमीर गरीब होना चाहता है। आज अमेरिका में गरीब होने की दौड़ खड़ी हो रही है, क्योंकि अमेरिका खूब अमीर हो गया है। तो नए बच्चे, लड़के, लड़कियां हिप्पी हो रहे हैं; वे छोड़ रहे हैं। वे कहते हैं, भाड़ में जाए तुम्हारा धन, तुम्हारे महल, तुम्हारी कारें कुछ भी नहीं चाहिए। हमें जिंदगी चाहिए सीधी, सरल।
अमीर गरीब होना चाहते हैं; गरीब अमीर होना चाहते हैं । कोई कुछ होना चाहता है, कोई कुछ होना चाहता है। एक बात पक्की है कि कोई भी स्वयं नहीं होना चाहता।
आप भी अपने भीतर न मालूम क्या - क्या सोचते रहते हैं। कोई को गांधी बनना है, किसी को विवेकानंद बनना है, किसी को क्राइस्ट बनना है। बस, एक बात भर नहीं, जो आप हैं, वह भर नहीं बनना है; बाकी सब बनना है।
संसार का अर्थ है, कुछ और होने की दौड़ । मोक्ष का अर्थ है, स्वयं होने के लिए राजी हो जाना। उसके लिए किसी भावना की जरूरत नहीं है। इसलिए अगर आप भावना करके मुक्त होंगे, तो वह मुक्ति झूठी होगी। वह भी चेष्टित और मन का ही फैलाव होगी।
कई लोग भावना करके मुक्त होने की चेष्टा करते रहते हैं। ऐसा समझाते रहते हैं कि हम तो आत्मा हैं, मुक्त हैं। यह शरीर मैं नहीं हूं, यह संसार मैं नहीं हूं। ऐसा समझा-समझाकर, कोशिश कर-करके, चेष्टा से अपने को मुक्त मान लेते हैं। उनकी मुक्ति भी चेष्टित है।
चेष्टित कोई मुक्ति हो सकती है? जिसके लिए चेष्टा करना पड़े, वह मुक्ति नहीं हो सकती। क्योंकि चेष्टा तो बंधन बन जाती है। और जिसको सम्हालना पड़े रोज-रोज, वह मुक्ति नहीं हो सकती। क्योंकि मुक्ति तो वही है जिसे सम्हालना न पड़े, ही ।
नदी को नदी होने के लिए कोई चेष्टा नहीं करनी पड़ती है। बादलों को आकाश में बादल होने के लिए कोई चेष्टा नहीं करनी पड़ती। आपके भीतर भी जो स्वभाव है, वह नदी और बादलों की तरह है । उसे होने के लिए कोई चेष्टा नहीं करनी है। और आप चेष्टा में लगे हैं।
इसलिए एक बहुत कीमती बात समझ लें।
जो दुनिया में परम ज्ञान के संदेशवाहक हुए हैं, उन्होंने कहा है कि वह जो परम ज्ञान है, चेष्टारहित है, एफर्टलेस है। उसमें कोई
प्रयत्न नहीं है । उसमें कुछ भी किया कि गलती हो जाएगी। उसमें कुछ करना भर मत। करना बंद कर देना और कुछ मत करना । यह जो करने का जाल है, इसे छोड़ देना; और तुम न करने में
ठहर जाना ।
यह कृष्ण यही कह रहे हैं कि वह जो पुरुष है, वह न तो कुछ करता है, न कुछ भोगता है। वह सिर्फ है। शुद्ध स्वभाव है।
उस पुरुष को ऐसे शुद्ध स्वभाव में जान लेना और समझना कि सब कुछ प्रकृति करती है और सब कुछ प्रकृति में होता है और मुझमें कुछ भी नहीं होता। मैं हूं निष्क्रिय; प्रकृति है सक्रिय । कर्म मात्र प्रकृति में हैं और मैं अकर्म हूं- ऐसी प्रतीति, ऐसा बोध, ऐसा इलहाम ऐसा एहसास - फिर कोई बंधन नहीं है, फिर कोई संसार - नहीं है।
अब हम सूत्र को लें।
हे अर्जुन, उस परम पुरुष को कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि से ध्यान के द्वारा हृदय में देखते हैं तथा अन्य कितने ही ज्ञान- योग के द्वारा देखते हैं। और अन्य कितने ही निष्काम कर्म - योग के द्वारा देखते हैं।
ध्यान
कृष्ण कहते हैं, वह जो परम पुरुष की स्थिति है, उस स्थिति को | देखने के बहुत द्वार हैं। कुछ लोग शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि से ' के द्वारा उसे हृदय में देखते हैं । शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि से ध्यान के
द्वारा...।
बुद्धि को सूक्ष्म और शुद्ध करने की प्रक्रियाएं हैं। बुद्धि साधारणतया स्थूल है। और स्थूल होने का कारण यह है कि स्थूल विषयों से बंधी है।
आप क्या सोचते हैं बुद्धि से ? अगर आप अपने मन का विश्लेषण करें, तो आप पाएंगे कि आपके सोचने-विचारने में कोई पचास प्रतिशत से लेकर नब्बे प्रतिशत तो कामवासना का प्रभाव होता है। उसका अर्थ है, आप शरीरों के संबंध में सोचते हैं। पुरुष स्त्रियों के शरीर के संबंध में सोचता रहता है।
तो जब आप शरीर के संबंध में सोचते हैं, तो बुद्धि भी शरीर जैसी ही स्थूल हो जाती है। बुद्धि जो भी सोचती है, उसके साथ तत्सम हो जाती है।
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अगर आप शरीरों के संबंध में कम सोचते हैं, कामवासना से कम ग्रसित हैं, तो धन के संबंध में सोचते हैं। मकानों, कारों के संबंध में सोचते हैं, जमीन-जायदाद के संबंध में सोचते हैं। वह भी सब स्थूल है। और उसमें भी बुद्धि वैसी ही हो जाती है, जो आप